गृह मंत्रालय ने सोमवार (11 मार्च) को नागरिकता संशोधन अधिनियम (CAA) का नियमों का नोटिफिकेशन जारी कर दिया है। सरकार द्वारा अधिसूचना जारी करने के साथ ही कानून देशभर में लागू हो गया।
साल 2019-20 की सर्दियों में इस कानून के खिलाफ व्यापक विरोध प्रदर्शन देखने के मिला था। कानून को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती भी दी गई है। आइए जानते हैं सीएए को लेकर क्या विवाद है और इसे लागू करने के बाद क्या बदलने वाला है?
CAA (Citizenship Amendment Act) क्या है?
दिसंबर 2019 में संसद ने नागरिकता अधिनियम, 1955 में एक संशोधन पारित किया, जिसमें पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश से 31 दिसंबर, 2014 से पहले भारत आने वाले हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी या ईसाई समुदायों से जुड़े प्रवासियों को नागरिकता देने के प्रावधान को शामिल किया गया। ध्यान रहे कि इसमें मुसलमानों का नाम शामिल नहीं है।
सोमवार को ई-गज़ट में नोटिफाई किए गए 39-पृष्ठ के नियम योग्य व्यक्तियों के लिए भारतीय नागरिकता के लिए आवेदन करने की प्रक्रिया निर्धारित करते हैं। नियम यह निर्दिष्ट करते हैं कि नागरिकता के दावे को प्रस्तुत करने और उस पर विचार करने के लिए आवश्यक कौन से दस्तावेज और कागजी कार्यवाही है।
क्या है कानूनी चुनौती?
2020 में इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग (IUML) द्वारा सर्वोच्च न्यायालय में संशोधन को चुनौती दी गई थी। तब से 200 से अधिक याचिकाएं दायर की जा चुकी हैं और इन्हें IUML की चुनौती के साथ टैग किया गया है। इनमें राजनेताओं असदुद्दीन ओवैसी, जयराम रमेश, रमेश चेन्निथला और महुआ मोइत्रा और राजनीतिक संगठनों जैसे असम प्रदेश कांग्रेस कमेटी, असम गण परिषद (AGP), नेशनल पीपुल्स पार्टी (असम), मुस्लिम स्टूडेंट्स फेडरेशन (असम), और द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (DMK) की याचिकाएं भी शामिल हैं।
अक्टूबर 2022 में भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश यू यू ललित और न्यायमूर्ति रवींद्र भट और हिमा कोहली की एक पीठ ने एक आदेश पारित किया जिसमें कहा गया था कि सीजेआई ललित की सेवानिवृत्ति के बाद दिसंबर 2022 में अंतिम सुनवाई शुरू होगी। हालांकि, तब से इस मामले की सुनवाई नहीं हुई है।
सर्वोच्च न्यायालय की वेबसाइट के अनुसार, यह मामला वर्तमान में न्यायमूर्ति पंकज मित्तल की अध्यक्षता वाली पीठ के समक्ष सूचीबद्ध है।
समानता का अधिकार
CAA को चुनौती इस आधार पर दी गई है कि यह संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन करता है, जिसमें कहा गया है कि “स्टेट (देश) अपने क्षेत्र के भीतर किसी भी व्यक्ति को कानून के समक्ष समानता या कानूनों के समान संरक्षण से वंचित नहीं करेगा”। याचिकाकर्ताओं का तर्क है कि किसी योग्यता या फिल्टर के रूप में धर्म का उपयोग समानता के मौलिक अधिकार का उल्लंघन करता है।
याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया है कि अवैध अप्रवासियों की पहचान करने के लिए असम में नागरिकों का राष्ट्रीय रजिस्टर (NRC), CAA के साथ-साथ मुसलमानों को निशाना बनाने के लिए लाया गया है।
अदालत को इस बात पर गौर करना होगा कि क्या तीन मुस्लिम-बहुल पड़ोसी देशों के तथाकथित “अत्याचार से प्रभावित अल्पसंख्यकों” के लिए की गई विशेष व्यवस्था केवल नागरिकता प्रदान करने के लिए अनुच्छेद 14 के तहत एक उचित वर्गीकरण है, या स्टेट मुसलमानों को छोड़कर उनके साथ भेदभाव कर रहा है।
सरकार ने कहा है कि मुसलमानों को “अत्याचार से प्रभावित” अल्पसंख्यकों के समूह से इसलिए बाहर रखा गया है क्योंकि पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश इस्लामिक देश हैं जहां मुसलमान बहुसंख्यक हैं। हालांकि, सुनवाई के दौरान इस पर चर्चा होनी है कि कि क्या मुसलमानों को बाहर रखने के लिए इन तीनों देशों को अनिवार्य रूप से चुना गया था, ऐसा इसलिए है क्योंकि श्रीलंका में तमिल हिंदू, म्यांमार में रोहिंग्या या अहमदी और हज़ारा जैसे अल्पसंख्यक मुस्लिम संप्रदाय भी अत्याचार से प्रभावित अल्पसंख्यक हैं।
अगर कोई वर्गीकरण मनमाना पाया जाता है तो सुप्रीम कोर्ट उसे रद्द कर सकती है। अदालत ने हाल ही में इस आधार पर चुनावी बॉन्ड योजना को रद्द कर दिया था कि यह “स्पष्ट रूप से मनमानी” थी अर्थात “तर्कहीन, मनमौजी या तय सिद्धांत के खिलाफ।”
इसका बड़ा मुद्दा यह भी है कि क्या नागरिकता की पात्रता के लिए धर्म को आधार बनाना धर्मनिरपेक्षता का उल्लंघन करता है, जो संविधान की एक बुनियादी विशेषता है।