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Gustakhi Maaf: इसलिए महत्वपूर्ण हो जाता है पायलट का अनुभव

-दीपक रंजन दास
12 जून 2025 का दिन भारतीय उड्डयन इतिहास का एक काला दिन है. एक विशाल ड्रीमलाइनर इसी दिन उड़ान के कुछ ही सेकण्ड के भीतर क्रैश हो जाता है और 275 से अधिक लोगों की मौत हो जाती है. एक लाख छब्बीस हजार लीटर एवियेशन फ्यूल से उठी आग की लपटें कयामत का नजारा करा जाती हैं. जले भुने इंसानी शवों की शिनाख्त के लिए डीएनए टेस्टिंग का सहारा लेना पड़ता है. पर यह संख्या और बड़ी, इससे कई गुणा बड़ी हो सकती थी. विमान जिस कोण (ट्रैजेक्टरी) पर उड़ान भर रहा था कि यदि उसे स्वाभाविक रूप से गिरने दिया गया होता तो वह 1200 बिस्तर वाले सरकारी अस्पताल पर गिरा होता. इतने बड़े अस्पताल में ओपीडी की भीड़ और स्टाफ को छोड़ भी दें तो आईपीडी में ही 2400 से ज्यादा मरीज और तीमारदार मौजूद थे. इन सभी की जानें जा सकती थीं. पायलट के पास चंद सेकण्ड का वक्त था निर्णय लेने के लिए. वो जानते थे कि विमान अब उड़ नहीं सकता और उसका क्रैश होना तय है. इसलिए क्रैश लैंडिंग ऐसी होनी थी कि नुकसान को कम किया जा सके. 56 वर्षीय पायलट कैप्टन सुमित सभरवाल ने तत्काल निर्णय लिया और विमान को अस्पताल से पहले खड़ी हॉस्टल वाली इमारत पर गिर जाने दिया. जो होना था वह हुआ पर वे अस्पताल में मौजूद हजारों लोगों की जिन्दगी बचाने में सफल रहे. कैप्टन सभरवाल के पास 1800 घंटे से अधिक का उड़ान अनुभव था. पायलट के लिए एक-एक सेकण्ड एक-एक घंटे का महत्व रखता है. जो बात 16 दिन बीतने के बाद हमें आज समझ में आ रही है, उसे समझने के लिए पायलट के पास केवल चंद सेकण्ड थे. जीवन में ऐसे मौके कई बार आते हैं जब क्षण भर में लिया गया फैसला आगे की जिन्दगी का पूरा रुख मोड़ देते हैं. कुछ कहने या फिर नहीं कहने के बीच का फासला भी एक क्षण का ही होता है. तत्काल व्यक्त की गई प्रतिक्रिया अकसर बात को संभालने की बजाय बिगाड़ देती है. कभी-कभी तो यह इतना बिगड़ जाता है कि उसके ठीक होने की संभावना ही पूरी तरह खत्म हो जाती है. अनुभव हमें सिखाता है कि कब प्रतिक्रिया देनी है और कब चुप रहना है. पर आजकल इसी अनुभव को ताक पर रख देने की नई परिपाटी चल पड़ी है. यह प्रमाणीकरण का दौर है. मेडिकल लैब के लिए एनएबीएल, मेडिकल सेवाओं के लिए एनएबीएच, महाविद्यालयों के लिए नैक से लेकर स्कूल, रेस्तरां, होटल सभी के लिए सर्टिफाइंग एजेंसियां स्थापित हो चुकी हैं. खाने-पीने की चीजों पर भी लाल हरे रंगों के डॉट लग रहे हैं. भारत श्रुत परम्पराओं का देश रहा है. यहां ज्ञान पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होती रही है. सर्टिफिकेशन के इस दौर ने सबसे ज्यादा नुकसान इसी परम्परा को पहुंचाया है. अनुभवी अब या तो डिप्रेशन में हैं या फिर खामोश हो गए हैं.

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Manoj Mishra

Editor in Chief

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