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भाजपा-कांग्रेस के दिग्गजों की अटकी साँसें, अधर में अटके राजनीतिक भाग्य ने बढ़ाई चिंता, 7 सीटों पर 9 दिग्गजों का होगा फैसला

रायपुर (श्रीकंचनपथ न्यूज़)। सातवें और अंतिम चरण का मतदान आज शाम खत्म होने के बाद एग्जिट पोल के नतीजे आने शुरू हो जाएंगे, लेकिन इससे पहले ही भाजपा व कांग्रेस के कई दिग्गजों की सांसे अटकी पड़ी है। छत्तीसगढ़ की बात करें तो यहां भाजपा के 4 तो कांग्रेस के 5 दिग्गज नेताओं का भाग्य 4 जून की मतगणना से तय होगा। इनमें भाजपा के 2 निवृत्तमान सांसद, प्रदेश सरकार के एक कद्दावर मंत्री के अलावा पार्टी की पूर्व सांसद और राष्ट्रीय नेत्री शामिल है। वहीं कांग्रेस की बात करें तो उसके एक पूर्व मुख्यमंत्री, एक निवृत्तमान सांसद के साथ ही पूर्ववर्ती सरकार के तीन केबिनेट मंत्री भी हैं।

छत्तीसगढ़ में तीन दौर का मतदान खत्म होने के बाद कई सीटें नतीजों के मकडज़ाल में फंसकर रह गई है। इससे भाजपा और कांग्रेस दोनों समान रूप से चिंतित है। कांग्रेस ने 2019 के चुनाव में जो दो सीटें जीती थी, वे दोनों सीटों कड़ी टक्कर में फंसकर कसमसा रही हैं। ये सीटें हैं बस्तर और कोरबा। कुछ ऐसा ही हाल भाजपा के साथ भी है। उसकी पिछली जीती हुई राजनांदगांव, कांकेर और जांजगीर चाम्पा सीटों पर बराबरी और टक्कर का मुकाबला है। हालात यह है कि जीत के दावों के बीच दोनों दल इन सीटों को कठिन मानकर चल रहे हैं। पिछले चुनाव में बस्तर सीट पर कांग्रेस के दीपक बैज ने जीत हासिल की थी, जिनका टिकट काटकर इस बार पूर्वमंत्री और कद्दावर नेता कवासी लखमा को दिया। क्योंकि दीपक बैज पीसीसी के अध्यक्ष हैं, इसलिए इस सीट पर उनकी भी प्रतिष्ठा सीधे तौर पर जुड़ी हुई है। हालांकि यह भी चर्चा सुर्खियों में रही थी कि कुछ महीनों पहले हुए विधानसभा चुनाव के दौरान लखमा ने बैज को सहयोग नहीं किया था, इसलिए इस बार बैज ने भी लखमा का साथ नहीं दिया। हालांकि यह सिर्फ चर्चा में ही रहा। कांग्रेस की दूसरी सीट कोरबा है, जहां से पार्टी ने निवृत्तमान सांसद ज्योत्सना महंत को रिपीट किया है। भाजपा ने यहां से तेजतर्रार नेत्री सरोज पाण्डेय को उतारा। दोनों ही दलों के लिए यह सीट असमंजस का विषय है। यहां स्थानीय और बाहरी का मुद्दा भी जोर-शोर से उठाया गया, हालांकि इसका बहुत ज्यादा प्रभाव मतदान पर नहीं हुआ। कोरबा सीट पर लीड हासिल करने के लिए भाजपा ने खूब जोर लगाया है। जानकारों का कहना है कि भाजपा प्रत्याशी को यहां स्थानीय कार्यकर्ताओं का साथ कम ही मिल पाया। बावजूद इसके मुकाबला कांटे का है।

भाजपा के 4 दिग्गजों में 3 फँसे
भाजपा ने अपने प्रत्याशियों का निर्धारण उनके चेहरों की बजाए पीएम मोदी के चेहरे को सामने रखकर किया। शायद यही वजह है कि इस चुनाव में पार्टी के ज्यादातर चेहरे नए थे, या पहली बार चुनाव में उतरे। कांकेर से भोजराज नाग, बस्तर से महेश कश्यप, महासमुंद से रूपकुमारी चौधरी, बिलासपुर से तोखन साहू तो जांजगीर चाम्पा से कमलेश जांगड़े, रायगढ़ से राधेश्याम राठिया तो सरगुजा से पूर्व कांग्रेसी चिंतामणि महाराज को प्रत्याशी बनाया गया। इन चेहरों के सामने कांग्रेस ने बेहतर रणनीति और जातीय व सामाजिक समीकरणों को देखते हुए प्रत्याशी तय किए। नतीजा यह हुआ कि ज्यादातर सीटों पर कड़ा मुकाबला हुआ। हालांकि भाजपा ने इस चुनाव में रायपुर सीट से बृजमोहन अग्रवाल, दुर्ग सीट से निवृत्तमान सांसद विजय बघेल, कोरबा से सरोज पाण्डेय तो राजनांदगांव से निवृत्तमान सांसद संतोष पाण्डेय जैसे धाकड़ नेताओं को टिकट दी। कहा जा रहा है कि इनमें से सिर्फ रायपुर की सीट पर भाजपा दमदारी से जीत का दावा कर सकती है। इसके अलावा दुर्ग सीट पर पार्टी के जीत की गुंजाइश है। जबकि कोरबा व राजनांदगांव की सीट मंझधार में फंसी हुई है।

कांग्रेस के 5 प्रत्याशियों की बढ़ी चिंता
कांग्रेस के 5 नामचीन नेताओं ने इस बार लोकसभा का चुनाव लड़ा। इनमें राजनांदगांव से पूर्व सीएम भूपेश बघेल, उनकी केबिनेट में मंत्री रहे ताम्रध्वज साहू, कवासी लखमा और डॉ. शिवकुमार डहरिया के साथ ही निवृत्तमान सांसद ज्योत्सना महंत शामिल हैं। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि भले ही इन सीटों पर दोनों पार्टियों के प्रत्याशियों में कड़ा मुकाबला हो, लेकिन इनमें से कम से कम 4 सीटों पर कांग्रेस के लिए अच्छी संभावनाएं हैं। ये सीटें है राजनांदगांव, कोरबा, जांजगीर चाम्पा और बस्तर। वहीं पिछली बार कांकेर सीट पर कम वोटों के अंतर से हारे बिरेश ठाकुर की स्थिति भी बेहतर मानी गई है। शायद यही वजह है कि कांग्रेस के नेता मतदान के बाद से ही लगातार 4 से 5 सीटें जीतने का दावा कर रहे हैं। भले ही राजनीतिक विश्लेषक कुछ भी कहें, लेकिन हकीकत यह है कि नतीजों को लेकर कांग्रेस के इन दिग्गज नेताओं की सांसें भी अटकी हुई है। इनमें से भूपेश बघेल और कवासी लखमा वर्तमान में विधायक हैं, इसलिए उनके राजनीतिक भविष्य पर कोई आंच आने की संभावना नहीं है। लेकिन सबसे ज्यादा चिंता का विषय महासमुंद सीट से चुनाव लड़े ताम्रध्वज साहू व जांजगीर चाम्पा से लड़े डॉ. शिवकुमार डहरिया के लिए है। दोनों पिछला विधानसभा चुनाव हार गए थे। बावजूद इसके पार्टी ने उन्हें संसदीय चुनाव में उतारा।

किसके साथ रहा साहू समाज?
इस लोकसभा चुनाव में भाजपा ने 1 तो कांग्रेस ने 2 साहू प्रत्याशियों को उतारा। बिलासपुर की सामान्य सीट से तोखन साहू भाजपा के प्रत्याशी बने तो महासमुंद से ताम्रध्वज साहू और दुर्ग से राजेन्द्र साहू ने बतौर कांग्रेस प्रत्याशी चुनाव लड़ा। लेकिन पूरे चुनाव के दौरान यह सवाल अपनी जगह कायम रहा कि आखिर छत्तीसगढ़ के साहुओं ने किस पार्टी का साथ दिया? दरअसल, माना जाता रहा है कि साहू समाज प्रारम्भ से ही भाजपा के साथ रहा, लेकिन 2018 के विधानसभा चुनाव में इस समाज ने कांग्रेस का साथ इसलिए दिया क्योंकि समाज के अग्रणी नेता ताम्रध्वज साहू मैदान में थे और उनके प्रदेश का मुख्यमंत्री बनने की संभावना ज्यादा थी। छत्तीसगढ़ में साहू समाज की जनसंख्या सर्वाधिक है और इस समाज के एकमुश्त वोट नतीजों को प्रभावित करते हैं। यही वजह रही कि साहू समाज के वोटों को लेकर तरह-तरह के कयास लगाए जाते रहे। लेकिन इस बार समाज ने किसी राजनीतिक दल की बजाए साहू प्रत्याशियों के पक्ष में काम किया। बिलासपुर में इस समाज की बाहुल्यता है। वहीं दुर्ग में यह समाज अग्रणी है। यही स्थिति महासमुंद में भी है। माना जाता है कि इन सीटों पर साहू समाज के लोगों ने साहू प्रत्याशी के पक्ष में ही मतदान किया। बावजूद इसके राजनीतिक विश्लेषक महासमुंद और दुर्ग की सीटों पर एकराय नहीं हैं। बिरनपुर कांड ने ताम्रध्वज की सामाजिक स्थिति को प्रभावित किया तो वहीं दुर्ग सीट पर राजेन्द्र साहू को कमजोर माना गया है। यही वजह है कि साहू समाज के समर्थन के बावजूद इन दोनों साहू प्रत्याशियों की धुकधुकी बढ़ी हुई है।

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