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Gustakhi Maaf: ऐप के ऐसे धंधे में न ही पड़े सरकार

-दीपक रंजन दास
सरकार को सेवा ऐप के धंधे में नहीं पडऩा चाहिए. विशेष कर ऐसी सेवा के क्षेत्र में जिसमें पहले से निजी क्षेत्र सक्रिय हो। रायपुर नगर निगम ने दो साल पहले एक ऐप शुरू किया था। दावा किया गया था कि मोर रायपुर ऐप के जरिए लोग विभिन्न प्रकार की सेवाओं को घर बैठे प्राप्त कर सकेंगे। इसमें प्लंबर, धोबी, ड्रायवर, नर्स, कुक, साइकिल मिस्त्री, वाहन मैकेनिक, दर्जी, पनवाड़ी, मेहंदी, सलून जैसी सेवाओं को शामिल किया गया था। पर दो साल में बहुत कम हुनरमंदों ने इसमें पंजीयन कराया और इनसे सेवाओं की मांग करने वाले तो गिनती के ही रहे। वैसे भी इनमें से अधिकांश धंधे मोहल्लों से जुड़े हुए हैं। जब इनके शटर बंद रहते हैं तो उसपर लिखा फोन नम्बर सम्पर्क सूत्र का काम करता है। ये सभी कार्य ऐसे हैं जिसमें जितना ज्यादा काम करोगे, उतना कमाओगे। ऐसे लोग इधर से उधर भटक कर अपना वक्त जाया नहीं कर सकते। इनकी दुकान पर हमेशा ग्राहक होते हैं। अर्थात इनके धंधे पहले ही ठीक-ठाक चल रहे हैं। थोड़ा सा मार्केट रिसर्च और सर्वे ही कर लेते। स्विगी और जोमाटो जैसे ऐप भोजन सप्लाई कर ही रहे हैं। इसपर पंजीयन कराने के लिए किसी आईएचएम डिग्री या न्यूट्रीशियन के डिप्लोमा की जरूरत नहीं है। होम नर्स की मांग लोग इलाज कर रहे चिकित्सक या अस्पताल से ही करते हैं। इसके अलावा कुछ सेवाएं हैं जिसमें बाहरी लोगों को घर के भीतर आने देना पड़ता है। इनमें बेडसाइड नर्स, कामवाली, मेहंदी, टीवी, फ्रिज, एसी, टेलीफोन मैकानिक और प्लंबर शामिल हैं। निजी ऐप में केवल हुनर के आधार पर सेवाओं का पंजीयन हो सकता है जबकि सरकारी ऐप में इसके लिए भी सर्टिफाइड होना जरूरी होगा। घर घुसरू सेवा प्रदाता के लिए पुलिस वेरीफिकेशन भी जरूरी हो जाता है। यह कोई नौकरी वाला पुलिस वेरीफिकेशन तो है नहीं कि मिठाई का डिब्बा दिया और दस्तखत करा लिये। इसमें पुलिस को जिम्मेदारी भी लेनी होगी। वैसे पुलिस कहती तो है कि नौकर रखने से पहले उसका पुलिस वेरीफिकेशन करवा लो पर इसके आंकड़े भी बहुत ज्यादा उम्मीद नहीं जगाते। किराएदार की सूचना पुलिस को देना तो कोई वैसे भी जरूरी नहीं समझता। कहने का मतलब केवल इतना है कि कामकाज के लिए लोग अपनी समझ और सम्पर्कों का ही उपयोग करते हैं। इक्का-दुक्का राज्यों को छोड़कर कहीं भी लोग न तो सरकार से कोई उम्मीद रखते हैं और न ही उसकी सेवाओं पर भरोसा करते हैं। वैसे भी सरकारी ऐप और वेबसाइट बनाने वाले भी ठेकेदार टाइप के ही होते हैं। ऐप बनाकर दे दिया, पैसा ले लिया और खेल खत्म। न तो इसका मेंटेनेंस हो पाता है और न जरूरी सुधार हो पाते हैं। प्रक्रिया में उलझकर जरूरतें दम तोड़ देती हैं। सरकारी ऐप से जूझने वाले 10 में से 8 लोग इसीलिए सीधे च्वाइस सेंटर पहुंचते हैं। मगजमारी से बचने का यही आसान तरीका है।

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