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बेहद पुराना है कृत्रिम बारिश का इतिहास, दिल्ली में पहली बार 1957 में हुई थी कोशिश

दिल्ली की हवा को साफ करने के लिए सरकार ने अक्टूबर के आखिर में ‘क्लाउड-सीडिंग’ से कृत्रिम बारिश कराने का प्लान बनाया है।  दिल्ली में पहली बार 1957 में मानसून के समय कृत्रिम बारिश का प्रयोग हुआ था। हाल के सालों में सर्दियों में दिल्ली को हवा में प्रदूषण की गंभीर समस्या का सामना करना पड़ा है।

तीसरी बार कोशिश

भाजपा सरकार की ‘क्लाउड-सीडिंग’ से कृत्रिम बारिश कराने की यह तीसरी कोशिश है। गुरुवार को बुराड़ी इलाके में विशेषज्ञों ने इस प्रदूषण नियंत्रण के तरीके का सफल टेस्ट किया। आईआईटीएम की रिपोर्ट बताती है कि दूसरी कोशिश 1970 के दशक की शुरुआत में सर्दियों में हुई थी।

कब-कब हुआ प्रयोग?

रिपोर्ट के अनुसार, 1971-72 में कृत्रिम बारिश का टेस्ट नेशनल फिजिकल लैबोरेट्री के कैंपस में किया गया, जिसमें मध्य दिल्ली के करीब 25 किलोमीटर का इलाका शामिल था। इस दौरान जमीन पर रखे जनरेटर से ‘सिल्वर आयोडाइड’ के कण आसमान में छोड़े गए। ये कण छोटे केंद्र की तरह काम करते हैं, जिनके आसपास नमी जमा होकर बारिश की बूंदें बन जाती हैं।

रिपोर्ट कहती है कि दिसंबर 1971 से मार्च 1972 के बीच 22 दिन कृत्रिम बारिश के लिए सही माने गए। इनमें से 11 दिन ‘क्लाउड-सीडिंग’ की गई और बाकी 11 दिन ‘तुलना के लिए’ रखे गए। ‘तुलना के लिए’ से मतलब उस समय से है, जब किसी बदलाव के असर को मापने के लिए आधार के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है। इससे यह समझने में मदद मिलती है कि बदलाव जरूरी है या सिर्फ आम ट्रेंड का हिस्सा है। शुरुआती डेटा से पता चला कि ‘क्लाउड-सीडिंग’ वाले दिनों में बारिश बढ़ी, जिससे यह नतीजा निकला कि सही मौसम में कृत्रिम बारिश कराई जा सकती है।

53 साल बाद फिर कोशिश

लगभग 53 साल बाद दिल्ली में फिर से कृत्रिम बारिश का प्रयोग हुआ। बुराड़ी में टेस्ट के दौरान ‘सिल्वर आयोडाइड’ और ‘सोडियम क्लोराइड’ के कणों को हवाई जहाज से थोड़ी मात्रा में आसमान में छोड़ा गया। अधिकारियों ने बताया कि टेस्ट के दौरान हवा में नमी 20 प्रतिशत से भी कम थी, जो जरूरी 50 प्रतिशत से काफी कम है। इस वजह से बारिश नहीं हुई।

आईआईटी कानपुर की रिपोर्ट

आईआईटी कानपुर ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि इस उड़ान ने ‘क्लाउड-सीडिंग’ के लिए जरूरी चीजों, जैसे हवाई जहाज की तैयारी, उड़ान का समय, ‘सीडिंग’ उपकरणों और ‘फ्लेयर’ की कार्यक्षमता, और सभी एजेंसियों के बीच तालमेल का जायजा लिया। रिपोर्ट के मुताबिक, टेस्ट में सिल्वर आयोडाइड और सोडियम क्लोराइड के कण छोड़ने के लिए खास डिजाइन किए गए ‘फ्लेयर’ का इस्तेमाल हुआ। ‘फ्लेयर’ एक पाइप जैसा उपकरण होता है, जो हवा में ‘क्लाउड-सीडिंग’ के कण छोड़ता है।

दुनिया में इस्तेमाल

दुनियाभर में 56 से ज्यादा देश, जैसे ऑस्ट्रेलिया, चीन, रूस, थाईलैंड, यूएई और अमेरिका, ‘क्लाउड-सीडिंग’ का इस्तेमाल मौसम बदलने, बारिश बढ़ाने और हवा के प्रदूषण को कम करने के लिए करते हैं।

Manoj Mishra

Editor in Chief

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