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Gustakhi Maaf: शरबत जिहाद के बाद अब क्या?

-दीपक रंजन दास
इस विषय पर लिखने में अब वितृष्णा होने लगी है. लोगों को आसान सफलता की चाभी मिल गई है. मशहूर होना है तो धर्म की आड़ ले लो. हजारों साल से सभी धार्मिक गुरू समाज पर परजीवियों की तरह लटके हुए हैं. उनका काम अब तक निर्बाध गति से चल रहा है. फिर इसे राजनीतिक दलों ने इसे अपना लिया और अल्पसंख्यकवाद पैदा हुआ. फिर अल्पसंख्यकों की काट के रूप में बहुसंख्यकवाद आ गया. तसल्ली केवल इस बात की है कि इस पागलपन का असर अभी भी सीमित है. अब धर्म का सहारा धंधेबाज भी उठाने लगे हैं. एक शरबत बेचने वाले ने दूसरे शरबत बेचने वाले पर शरबत की कमाई से धर्म स्थल और धार्मिक स्कूल खोलने का आरोप लगाया. कहा कि उसका शरबत पियोगे तो मस्जिद और मदरसे बनेंगे. मेरा शरबत पियोगे तो मंदिर और गुरुकुल बनेंगे. दोनों ही अप्रासंगिक हैं. पढ़ा लिखा आदमी अपने बच्चों को आईआईटी, आईआईएम, एम्स जैसे संस्थान में भेजने के लिए लालायित रहता है. किसी खाते पीते परिवार को न तो अपना बच्चा मदरसे भेजना है और न ही गुरुकुल. लोगों की नजर में ये गरीबों के लिए होते हैं. सवाल यह है कि शरबत जिहाद के बाद क्या? देश में बॉलीवुड संगीत और गजल प्रेमियों की अच्छी खासी तादाद है. इस उद्योग में भी बड़ी संख्या में मुसलमान हैं तो क्या यह भी संगीत जिहाद का हिस्सा है? तो क्या रफी, रहमान, दिलीप कुमार, सायरा बानो, मधुबाला, वहीदा रहमान, एआर रहमान, जैसे सैकड़ों लोगों का बॉयकॉट करना होगा? ये कौन सी संस्कृति है भाई? देश के कुछ लोग अपने-अपने कम्फर्ट जोन में बैठकर ऐसी वाहियात बातें कर रहे हैं जिनका न तो कोई सिर है न पैर. अपनी बेतुकी बातों से ये आक्रोश को हवा दे रहे हैं, कौमों को उकसा रहे हैं. देश भर में ऐसी घटनाएं घटित हो रही हैं जिसके बारे में 70 या 80 के दशक में किसी ने सोचा तक नहीं था. भिलाई की बात करें तो आज भी बड़ी संख्या में लोग एमजीएम स्कूल में अपना दाखिला कराने के लिए लाइन लगाए खड़े रहते हैं. तो क्या यह भी किसी जिहाद का हिस्सा है? दरअसल, जिन्हें हर चीज में जिहाद दिखाई देता है वो अपनी कमियों को छिपा रहे होते हैं. यदि आपके बच्चे दूसरे धर्मों में दीक्षित हो रहे हैं या विवाह कर रहे हैं तो इससे केवल यही साबित होता है कि उनकी सोच आपसे बेहतर है. वो आजमा कर देखना चाहते हैं. आज भी सस्ते में उच्च शिक्षा हासिल करने के लिए लोग ईसाई संस्थानों में जाते हैं. दरअसल, समाज की जरूरतों का अपने कभी ध्यान रखा ही नहीं. जहां-जहां खालीपन मिला, दूसरे धर्म और पंथ के लोगों ने वह जगह घेर ली. इससे समाज मजबूत ही हुआ है. देश ने तरक्की ही की है. यह घटिया स्वार्थी खेल जितनी जल्दी बन्द होगा, देश और समाज के लिए उतना ही अच्छा रहेगा.

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Manoj Mishra

Editor in Chief

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