-दीपक रंजन दास
देश का सर्वोच्च न्यायालय निशाने पर है. एक बार फिर वही चाल चली गई है जिसमें पार्टी कुछ नहीं कहती बल्कि उसके नेता अंटशंट बकते हैं और पार्टी उससे किनारा कर लेती है। देश भर में सोशल मीडिया पर बहस चल पड़ती है और जनता का साफ-साफ ध्रुवीकरण हो जाता है। पहले यह प्रयोग हिन्दू मुसलमान को लेकर किया गया। पार्टियां अपना दामन इससे अलग रखती रहीं। पार्टी के बड़े नेता इसपर कोई भी टिप्पणी करने से बचते रहे पर छिपकलियों को छुट्टा छोड़ दिया। उन्होंने बिना लगाम के जो कुछ भी कहा वह देश भर में आग की तरह फैल गया। इस तरह से सांप भी मर गया और लाठी भी नहीं टूटी। अब एक नेता ने सुप्रीम कोर्ट को भी इसी अखाड़े में घसीट लिया है। जनाब का कहना है कि सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश देश में गृहयुद्ध के लिए जिम्मेदार हैं। यह सारा फसाद शुरू हुआ सुप्रीम कोर्ट द्वारा राष्ट्रपति को विधेयकों पर फैसला लेने के लिए समय सीमा तय करने को लेकर। उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ के बाद अब भाजपा सांसद निशिकांत दुबे ने इस पर ऐतराज जताया है। उनकी समझ में चूंकि भारत के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति राष्ट्रपति करते हैं इसलिए सीजेआई राष्ट्रपति को निर्देश नहीं दे सकते। वो कहते हैं कि कोई उसे कैसे निर्देश दे सकता है जिसने उसे नियुक्त किया है। वो ये भी कहते हैं कि देश में गृहयुद्ध के लिए चीफ जस्टिस जिम्मेदार हैं। धार्मिक युद्ध भड़काने के लिए सुप्रीम कोर्ट जिम्मेदार है। उनका आरोप है कि कोर्ट अपनी सीमाओं से बाहर जा रहा है। सनातन की बात करने वालों को यह तक नहीं पता कि न्यायाधीश सर्वोच्च होता है। वो कहते हैं कि अगर हर किसी को सारे मामलों के लिए सर्वोच्च अदालत जाना पड़े तो संसद और विधानसभा बंद कर देनी चाहिए। और उनका यही कथन उनके सवाल का जवाब भी है। यदि वो चाहते हैं कि संसद द्वारा पारित कानूनों में सुप्रीम कोर्ट हस्तक्षेप न करे तो उन्हें यह भी मान लेना चाहिए कि विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों को राज्यपाल को नहीं रोकना चाहिए। कुछ राज्यों के गवर्नर और खासकर दिल्ली के लेफ्टिनेंट गवर्नर तो इसीलिए बदनाम हैं कि उन्होंने विपक्षी दल की सरकार को काम ही नहीं करने दिया। दरअसल, विधानसभा द्वारा पारित विधेयकों पर राज्यपाल को कुछ नियमों का पालन करना होता है। या तो उसपर वे मुहर लगाएं या फिर दोबारा विवेचन के लिए विधानसभा को लौटा दें। यदि विधेयक दोबारा पारित होकर आता है तो राज्यपाल उसे नहीं रोक सकते। ऐसी स्थिति में या तो विधेयक पर हस्ताक्षर करना पड़ता है या फिर राष्ट्रपति को भेजना होता है। हर विधेयक राष्ट्रपति को नहीं भेजी जा सकती। विपक्ष शासित प्रदेशों के राज्यपाल एक पैंतरा अपनाते हैं। वे न तो विधेयक को लौटाते हैं और न उसपर मुहर लगाते हैं। इस तरह से विधानसभा अर्थात राज्य सरकार की मेहनत पर पानी फिर जाता है।

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