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Gustakhi Maaf: जब हाथी चले बाजार तो कुत्ते…

-दीपक रंजन दास
हिन्दी की एक मशहूर कहावत है – जब हाथी चले बाजार तो कुत्ते भौंकें हजार. इसमें भौंकने वालों को कुत्ते की संज्ञा दी गई है. हाथी पलटकर कुत्ते से झगड़ा नहीं करता, उसे उठाकर नहीं पटकता, अपने पैरों तले नहीं कुचलता. कुत्ता भी हाथी को वास्तव में काटने की गुस्ताखी नहीं करता. मुहावरे का जिक्र केवल इसलिए कि सार्वजनिक जीवन में आप जो कुछ भी कर रहे हैं, वह लोगों को दिख रहा है. इसे लेकर लोगों के मन में सवाल भी उठते हैं औऱ गालियां भी निकलती हैं. इसे आप व्यक्तिगत मान सम्मान से जोड़कर नहीं देख सकते. आपका आचरण लोक व्यवहार की श्रेणी में आता है जो टिप्पणियों और आलोचनाओं के लिए खुला होता है. यदि आपको लगता है कि आप सही हैं तो आपको हाथी की तरह अपने रास्ते जाना चाहिए और कुत्तों को भौंकते रहने देना चाहिए. पर इसके लिए आपका हाथी होना जरूरी है. अगर आप हाथी जैसा केवल दिखते ही हैं तो फिर आपको पलटने, कुत्ते को धमकाने, उससे लड़ने से या उसे काटने की कोशिश करने से कोई नहीं रोक सकता. आजाद भारत में बड़े-बड़े नेता हुए हैं. समय-समय पर उन्हें आलोचनाओं का सामना भी करना पड़ा है. पहले जब अखबारों में कार्टूनों का खूब चलन था, तब लोग बड़ी-बड़ी बातें कार्टून के जरिए कह जाते थे. अखबार भी अपने संपादकीय में जमकर आलोचना करते थे. रचनात्मक सहयोग भी करते थे. कोई भी बड़ा नेता कभी बुरा नहीं मानता था. जो काम का होता था, उसे सुन लेता था, जो बेकार का होता था उसे नजरअंदाज कर देता था. पर वह दौर अब बीत गया है. अब सभी को शानदार लाइफस्टाइल चाहिए. इसलिए पत्रकारिता को भी समझौता करना ही पड़ता है. वह समाज से अलग नहीं है. इसलिए यह जिम्मेदारी अब सोशल मीडिया ने उठा ली है. स्टैंडअप कॉमेडियन भी इसका हिस्सा हैं. अब आप अभिव्यक्ति का अधिकार दे दो या छीन लो, जिसमें जुनून होगा, वह तो बोलेगा ही. इसके परिणाम भी भुगत लेगा. पर आप क्या साबित कर रहे होगे, इसे हम आपके ही विवेक पर छोड़ देते हैं. राजनीति में आज कल जितनी तेजी से लोगों का हृदय परिवर्तन हो रहा है उतनी जल्दी तो दिल का डाक्टर भी स्टेंट नहीं डाल पाता. मजे की बात यह भी है कि जो अपनी पार्टी में रहकर दागी हो जाता है, वह भी दूसरी पार्टी में जाकर बेदाग हो जाता है. इसके चलते एक राजनीतिक दल को वाशिंग मशीन की संज्ञा भी दी गई. पर जब लोगों ने इसे कुछ खास भाव नहीं दिया तो फिकरा अपने आप ठंडे बस्ते में चला गया. किसी को लाठी भाला लेकर दौड़ने की जरूरत नहीं पड़ी. ऐसा कैसे हो सकता है कि बोलने वाले का जुर्म बड़ा और तोड़फोड़ मचाने वालों का जुर्म छोटा? क्या किसी गुनहगार को मजा चखाने के लिए उससे भी बड़ा जुर्म करना जरूरी है? तो फिर जंगल राज किसे कहेंगे?

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Manoj Mishra

Editor in Chief

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