कुंभ, यानी लाखों-करोड़ों की भीड़, संतों के अखाड़े और संगम में डुबकी। लेकिन 45 दिन तक चलने वाले इस पर्व को एक और चीज खास बनाती है, वो है- खाना।
3 एपिसोड की खास सीरीज ‘कुंभ का जायका’ में हम आपको रू-ब-रू कराएंगे कुंभ की अनूठी रसोइयों से।
आज पहले एपिसोड में बात करते हैं अखाड़ों की रसोइयों और उनके नियम-कायदों की।
अखाड़ों की रसोई संभालते हैं कोठारी महाकुंभ में 13 अखाड़ों के शिविर लगते हैं। हर अखाड़े में एक पद कोठारी का होता है। कोठारी का काम रसोई और भंडार की व्यवस्था संभालना होता है।
यूं तो कोठारी का पद अखाड़े के किसी संन्यासी को ही दिया जाता है, लेकिन महाकुंभ जैसे बड़े आयोजन में कई बार कुछ प्राइवेट केटरर्स को भी ये काम दिया जाता है।
खाने के नियम-कायदे हैं खास अखाड़ों के खाने में कई नियम-कायदे भी हैं। सभी अखाड़ों में लहसुन-प्याज तो प्रतिबंधित होता ही है, इसके अलावा बैंगन और मसूर दाल भी वर्जित होती है।
तिथि या पर्व के मुताबिक कुछ खास व्यंजन बनाना भी जरूरी माना जाता है
सुबह 5 बजे से शुरू हो जाती है अखाड़ों की रसोई, दिन में 3 बार बनता है खाना हर अखाड़े में रसोई सुबह 5 बजे से शुरू हो जाती है। सुबह की आरती के बाद बालभोग यानी नाश्ता बांटा जाता है। इसके बाद दोपहर में 11-12 बजे तक भोजन होता है।
शाम की आरती के बाद 8 बजे के आस-पास रात का खाना परोसा जाता है। खाने में यूं तो दाल, चावल, सब्जी और रोटी ही होती है, लेकिन क्षमता के मुताबिक हर अखाड़े में सब्जी का चयन बदल जाता है। साधारण आलू की सब्जी से लेकर शाही पनीर तक अखाड़ों की रसोई में सब कुछ मिल सकता है।
क्षमता के मुताबिक ही मिठाइयां भी बनती हैं। बालूशाही और लड्डू के साथ ही चंद्रकला और रसगुल्ले तक बनते हैं।
अखाड़ों में कोई भी आए, उसे भूखा नहीं लौटाते अलग-अलग अखाड़ों में 200 से लेकर 1000 तक संन्यासी रहते हैं। वैसे तो अखाड़ों की रसोई इन संतों के लिए ही होती है, लेकिन कोई आम आदमी भी भोजन के समय अखाड़े में आए तो उसे खाना खिलाए बिना नहीं लौटाया जाता।
आनंद अखाड़े में सामान्य दिनों में 200 से 300 लोगों का खाना बनता है, तो वहीं अमृत स्नान के दिनों में 1000-1200 लोगों का भोजन बनता है। वहीं निरंजनी अखाड़े जैसे बड़े अखाड़ों में हर दिन 1500 से 5000 लोगों को भोजन कराया जाता है। अमृत स्नान के दिनों में ये संख्या और बढ़ जाती है।
अखाड़े खुद करते हैं रसद का इंतजाम पूरे महाकुंभ के दौरान इतनी बड़ी रसोई चलाने के लिए रसद का इंतजाम अखाड़े खुद ही करते हैं। आनंद अखाड़े के कोठारी विजय गिरि बताते हैं कि यहां आने वाले संत अपनी इच्छानुसार रसोई के लिए चीजें देते हैं। कोई पर्व हो तो किसी संत की तरफ से विशेष पकवान बनवाने के लिए रसद सामग्री मुहैया करा दी जाती है। अखाड़े काफी चीजें अपने आश्रमों से लेकर यहां आते हैं और जरूरत की चीजें कुंभ में खरीदी भी जाती हैं
अखाड़ों से जुड़े अलग-अलग संत चलाते हैं भंडारे मुख्य रसोई के अलावा कई अखाड़ों से जुड़े संत अपने भंडारे भी चलाते हैं। जूना अखाड़े के शिविर में आए अलग-अलग संतों की ओर से रोज भंडारों में राह चलते लोगों को बुलाकर भोजन कराया जाता है।
कुंभ के बाद भी आश्रमों में जारी रहती है रसोई की परंपराएं कुंभ के संपन्न होने के बाद अखाड़ों से जुड़े सभी संत अपने-अपने आश्रमों में लौट जाते हैं। आश्रमों में भी रसोई की परंपरा यूं ही कायम रहती है। अनि अखाड़े से जुड़े महंत अशोक दास बताते हैं कि हर आश्रम में संतों के लिए भोजन के साथ-साथ आम जनता के लिए भंडारा चलता है।