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Gustakhi Maaf: काश! इन होनहारों का जन्म हजार साल पहले होता

-दीपक रंजन दास
काश! इन होनहारों का जन्म हजार साल पहले हो गया होता। न खजुराहो का मंदिर बनता और न ही कोणार्क का सूर्य मंदिर। देश के अन्य भागों में भी इस तरह के मंदिरों की कोई कमी नहीं हैं जहां कामुक मूर्तियां स्थापित हैं। यह सब एक हजार साल से भी अधिक पुराने हैं। तब भी यहां विदेशी आक्रांताओं का आगमन नहीं हुआ था। दरअसल, भारतीय दर्शन और आध्यात्म तन और मन, दोनों को बराबर का महत्व देता है। देश के अनेक मंदिर स्त्री अथवा पुरुष जननांगों से जुड़ी मान्यताओं के कारण विख्यात हैं। बिहार सहित कुछ राज्यों में विवाह संस्कारों के दौरान वर एवं उसके रिश्तेदारों को गालियां दी जाती हैं। यह परम्परा भी काफी पुरानी है। इसे बाकायदा सुर में गाया जाता है। अगर ये होनहार हजार साल पहले पैदा हो जाते तो ऐसी कोई परम्परा देश में हो ही नहीं सकती थी। ऐसे अनेक संस्कार और परम्पराएं भारत की विविधता का हिस्सा हैं जिसके गूढ़ अर्थ को समझना मुश्किल है। पर इन दिनों ऐसे होनहारों की एक पूरी फौज पैदा हो गई है। ये सभी समूह अलग-अलग नामों से जाने जाते हैं पर इनका मूल कार्य है ‘मॉरल पुलिसिंग’। ये झुण्ड यह तय करते हैं कि आदमी क्या बोलेगा, क्या खाएगा, क्या पहनेगा और किस त्यौहार को किस तरह मनाएगा। चूंकि ये समूह में होते हैं इसलिए ये किसी को भी आतंकित कर सकते हैं। उनके साथ मारपीट कर सकते हैं और उन्हें सजा भी दे सकते हैं। बात बात पर ये उत्तेजित हो जाते हैं और कभी कभी तो पुलिस थाने में जाकर रिपोर्ट तक लिखवा देते हैं। पुलिस न माने तो सीधे अदालतों में एफआईआर के लिए दरख्वास्त लगा देते हैं। उनका मानना है कि पुलिस और अदालतें सभी उनकी तरह वेल्ले हैं, किसी के पास कोई काम नहीं है। एक ऐसे ही मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कांग्रेस के राज्यसभा सांसद इमरान प्रतापगढ़ी के खिलाफ गुजरात पुलिस की तरफ से दर्ज एफआईआर को रद्द कर दिया। यह एफआईआर उनके इंस्टाग्राम पोस्ट ‘ऐ खून के प्यासे बात सुनो’ कविता को लेकर दर्ज की गई थी। कोर्ट ने फैसले में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर जोर देते हुए पुलिस और निचली अदालतों की संवेदनशीलता पर सवाल भी उठाए। जस्टिस ओका और जस्टिस भुइयां की बेंच ने कहा, कोई अपराध नहीं हुआ है। बोले गए शब्दों का सही अर्थ समझना जरूरी है। कविता में हिंसा का कोई संदेश नहीं है, बल्कि यह अहिंसा को बढ़ावा देती है।’ कोर्ट ने यह भी कहा कि संविधान के 75 साल बाद भी पुलिस को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का महत्व समझ में नहीं आता। यह अधिकार तब भी संरक्षित किया जाना चाहिए, जब बड़ी संख्या में लोग इसे नापसंद करें।’ सुप्रीम कोर्ट की इस टिप्पणी से उन लाखों-करोड़ों लोगों की भावनाओं और विचारों को बल मिला है जो मॉब लिंचिंग को सभ्य समाज के माथे का कलंक मानते हैं।

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Manoj Mishra

Editor in Chief

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