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Gustakhi Maaf: आवारा मवेशी और कितनी जानें लेंगे

-दीपक रंजन दास
आवारा पशुओं को लेकर भारतीय अवाम और यहां की सरकारों का रवैया बेहद ढुलमुल है. वैसे भी हमारे संस्कारों में पहली रोटी गाय की और आखिरी रोटी कुत्ते की रची बसी है. पर यह कहां लिखा है कि ये रोटी आवारा मवेशियों और कुत्तों को खिलानी होगी. जहां भोजन उपलब्ध होगा वहां मवेशियों का डेरा लगना तो महज वक्त की बात होगी. यह चर्चा आज इसलिए कि भिलाई के मॉडल टाउन में बुधवार की शाम एक 80 वर्षीय वृद्ध को सांड ने अपनी सींगों पर उठा लिया. फिर सिर पर से बोझ को हटाने के लिए उसने अपने सिर को जोर-जोर से दायें-बायें झटका दिया. वृद्ध का पेट और सीना फट गया. इस बड़ी घटना के बाद स्थानीय पार्षद के निवेदन पर नगर निगम ने यहां गाड़ी भेजी और सांड को उठा ले गई. पर इस सांड का करना क्या है, यह किसी को नहीं पता. पहले आवारा मवेशियों के झुण्ड सब्जी मण्डियों के आसपास पाए जाते थे जहां उन्हें भोजन मिल जाता था. पर अब गली मोहल्ले उनका आस्ताना हैं. लोग रोटी खिला-खिलाकर अपनी मौत का सामान पाल रहे हैं. कभी सांड के धक्के से कोई दुपहिया सवार नाली में जा गिरता है तो कभी कार का हेडलाइट, मिरर टूट जाता है. जब कभी सांडों के बीच मारपीट होती है तो आसपास के लोगों की सांसें रुक जाती हैं. कायदे से इन मवेशियों को कांजीहाउस के बाड़े में होना चाहिए. पर सरकारों को यह जरूरी नहीं लगता. आवारा पशुओं को सड़क से हटाना किसी भी सरकार की प्राथमिकता सूची में नहीं है. इन मवेशियों को कत्लखाने नहीं भेजा जा सकता, इन्हें कोई पालना भी नहीं चाहता, गोठान में मेहनत करने के लिए लोग नहीं मिलते, सरकार के पास इन्हें जीवित रखने के लिए पर्याप्त फंड नहीं हैं. इस समस्या का एक ही हल हो सकता था कि इन्हें एक जगह रखकर इनके गोबर का संग्रह किया जाए और उसका सदुपयोग किया जाए. आज भी छत्तीसगढ़ के कई अंचलों में गोबर काष्ठ या कण्डों का उपयोग किया जाता है. कुछ पैसे तो वहां से आ ही जाते. गोबर से कम्पोस्ट खाद बनाकर कृषि में उसका उपयोग किया जा सकता था. छत्तीसगढ़ की पिछली सरकार ने एक अभिनव योजना बनाई कि ऐसे आवारा मवेशियों को गांव के बाहर गौठान में इकट्ठा किया जाए. उनके पालन पोषण का खर्च गोबर और गोमूत्र से निकाला जाए. पर निचले स्तर पर भ्रष्टाचार और मेहनत से जी चुराने वालों ने इस योजना को पलीता लगा दिया. फिर सरकार बदल गई और पूरी योजना ही ठंडे बस्ते में चली गई. वैसे भी ये रास्ते कठिन थे. आसान तो यह है कि दूध और पुण्य के लिए गाय पालो और जैसे ही वह दूध देना बंद करे उसे बाहर का रास्ता दिखा दो. इसका एक नुकसान यह भी हुआ कि मवेशियों के नस्ल सुधार की जो योजना सरकार चला रही थी, उसकी भी वाट लग गई.

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Manoj Mishra

Editor in Chief

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