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Gustakhi Maaf: आग से जन्म लेती हैं कहानियां

-दीपक रंजन दास
आम धारणा है कि आग में जलकर सबकुछ भस्म हो जाता है. पर ऐसा नहीं है. आग लगने के बाद नई कहानियां जन्म भी लेती हैं. ये किसी पुस्तक के नए अध्याय जैसा है. एक खत्म होता है तो दूसरा शुरू होता है. जब भी कहीं आग लगी, उसमें से नई कहानियां ही निकल कर सामने आईं. कुछ ऐसा ही हुआ एक न्यायाधीश के साथ. आग उनके सरकारी आवास के प्रांगण में स्थित एक स्टोर में लगी. उस समय परिवार घर पर नहीं था. न्यायाधीश के निज सचिव ने दमकल को सूचित किया. दमकल कर्मियों ने आग बुझाई. यह एक हाईकोर्ट जज का आवास था. इसलिए सावधानी से काम लिया गया. अंतिम चिंगारी तक बुझाई गई. आग बुझाने के बाद रुटीन के तौर पर कमरे का सूक्ष्म निरीक्षण भी किया गया. अपनी रिपोर्ट में फायर सर्विस चीफ ने बताया कि आग बुझाने के बाद जब स्थल का निरीक्षण किया गया तो वहां कोई कैश या कैश से भरी बोरियां नहीं मिलीं. अग्निकांड की सूचना के बाद परिवार लौट आया. सुरक्षा कारणों से उन्हें स्थल से दूर ही रखा गया. वैसे भी यह कमरा बंगले के आउटहाउस की तरह इस्तेमाल होता था. यहां कबाड़, उपकरण आदि रखे होते थे. यह एक आम आवाजाही वाला कमरा था जहां किसी के आने-जाने पर कोई रोकटोक नहीं थी. कोई भी आदमी ऐसी जगह पर कैश तो क्या कोई भी कीमती सामान नहीं रखेगा. फिर भी कहानी चल पड़ी. जले नोटों की बोरियां की तस्वीरें सामने आने लगीं. जस्टिस दुहाई देते रहे कि ये जली हुई बोरियों की तस्वीरें उस स्थल से मेल नहीं खातीं जिसे उन्होंने अपनी आंखों से देखा था. पर यकीन करने के लिए तैयार बैठे लोगों ने तो जो सोचना था सोच लिया, जो मानना था मान लिया. इसके बाद क्या फर्क पड़ता है कि सचाई क्या है. यही तो कलियुग की खूबसूरती है. यहां सच वह नहीं होता जो सच होता है, यहां सच वह होता जिसे लोग मानना चाहते हैं. लोगों की रुचि स्कैंडल में है. जस्टिस के घर से करोड़ों रुपए के जले हुए नोट मिलना एक बड़ा ब्रेकिंग न्यूज था. जली हुई बोरियों की रकम किसने और कब गिन लीं किसी को पता ही नहीं चला. अब गेंद सुप्रीम कोर्ट और इलाहाबाद बार काउंसिंल के बीच इधर से उधर हो रही है. इसका चाहे जो नतीजा निकले पर एक बात तो तय है कि पीड़ित न्यायाधीश से आरोपी न्यायाधीश बन गए शख्स और उसके परिवार का सुख चैन छिन चुका है. उनकी छवि धूमिल हो चुकी है. मीडिया ट्रायल में उसे जो सजा मिलनी चाहिए थी वह मिल चुकी है. अब उनकी नौकरी रहे या जाए किसी को धेला भर भी फर्क नहीं पड़ता. अलबत्ता एक सवाल यह तो उठता ही है कि जब इतना बड़ा रिश्वतखोर जज था तो वकील उसके खिलाफ क्यों हो गए? वकील तो ऐसे जजों को सिर माथे पर बैठाते हैं.

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Manoj Mishra

Editor in Chief

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