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Gustakhi Maaf: सवा सौ बलि के बाद भी पिनक में लोग

-दीपक रंजन दास
नशे की पिनक बड़ी बुरी होती है। अफीम की पिनक में आदमी का सिर लटक जाता है। उसे आवाजें सुनाई तो देती हैं पर वह कोई प्रतिक्रिया नहीं करता। यह कुछ-कुछ समाधि वाली स्थिति होती है। ऐसे लोगों को मरा हुआ तो नहीं कह सकते पर जीवितों में भी इन्हें शुमार नहीं किया जा सकता। ये किसी की मदद नहीं कर सकते। इनके कानों में जा रहे शब्दों का कोई अर्थ नहीं होता। धर्म का नशा भी कुछ-कुछ अफीम की तरह होता है। हाथरस की घटना के बाद ऐसे लोगों ने भी बाबा को खूब खरी खोटी सुनाई जो अब तक धर्म के नाम पर लोगों को संगठित करने का झंडा उठाए घूम रहे थे। पिछली कई शताब्दियों से समाज सुधारक और धर्म उपदेशक जिस कोढ़ को खत्म करने की कोशिश कर रहे थे, उसे एकाएक राजनीतिक महत्वाकांक्षा के चलते हवा दे दी गई। अब न केवल यह कोढ़ समाज में फैल चुका है बल्कि उसके साथ खाज भी आ गई है। बाबा कोई भी हो, उसका नाम कुछ भी क्यों न हो, वह उपज है उसी समाज का जिसमें अंधभक्ति को प्रश्रय दिया जाता है। बाबा कोई रातों रात आसमान से तो नहीं टपका था। वह तो वहीं था। देश के भीतर अपना एक अलग साम्राज्य स्थापित कर रहा था। उसके पास अरबों की संपत्ति है। हजारों की प्रशिक्षित सेना है। उसके इलाके में पुलिस तक पर नहीं मार सकती। क्या किसी को यह सब दिखाई नहीं दे रहा था। वह तो भला हो कि सवा सौ लोगों ने उसकी सत्संग सभा में अपने प्राण गंवा दिये तो खबर बड़ी हो गई। वरना बाबा के आश्रम के भीतर हुए बड़े से बड़े अपराध की भी किसी को कानों कान खबर नहीं होती। दरअसल, सभ्य समाज को प्रत्येक दुश्वारी के लिए केवल एक ऐसा आदमी चाहिए होता है जिसपर वह पूरी जिम्मेदारी मढ़ सके। इस बार हाथरस बाबा पर पूरी जिम्मेदारी थोप दी गई है। कभी आतंकवादी गुट, कभी नक्सली तो कभी मुसलमान – समाज के पास बलि का बकरा तैयार रहता है। इन सभी को सेना के जवान और पुलिस के पूर्व अधिकारी ही प्रशिक्षण देते हैं। आदमी वर्दी में हो या बिना वर्दी के, सभी इसी समाज से आते हैं। धर्म का अफीम चटा दो तो उनकी हरकतें एक जैसी ही हो जाती हैं। वह कानून द्वारा शासित होने से इंकार कर देता है। आप दंड संहिता का नाम बदल कर न्याय संहिता रख सकते हो, पर समाज के ऐसे रसूखदारों के खिलाफ नहीं जा सकते। वैसे भी हाथरस का बाबा कोई पहला बाबा नहीं है जिसकी पड़ताल में मीडिया पसीना बहा रहा है। इससे पहले भी ऐसे रसूखदारों के कच्चे चिठ्ठी खुले हैं। पर उनके अनुयायियों पर इसका कोई असर नहीं पड़ा है। वो जहां थे, वहीं हैं और शायद हमेशा वहीं बने रहेंगे। उन्होंने आस्था और भक्ति की अफीम जो चाट रखी है।

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