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Gustakhi Maaf: अब तो ज्ञान का मतलब ही क्लिष्टता

-दीपक रंजन दास
फिल्म थ्री ईडियट्स के कुछ संवादों का लोगों ने खूब आनंद लिया था. इन्हीं में से एक दृश्य था क्लासरूम का। जहां आधुनिक पढ़ाई की क्लिष्ट भाषा पर तंज कसे गए थे। चतुर रामलिंगम प्रतिनिधित्व कर रहे थे टॉपर छात्रों का जो परिभाषाओं को अक्षरश: याद रखते थे और दोहराते भी थे। वहीं रणछोड़ दास छांछड़ था वह बच्चा जो चीजों को समझता तो था पर उसकी भाषा सीधी और सरल थी। चतुर रामलिंगम आगे चलकर एक विदेशी फर्म में अच्छी नौकरी हासिल कर लेता है। वह पहाड़ों में बच्चों को खेल-खेल में विज्ञान सिखाने वाले छांछड़ को हेय दृष्टि से देखता है। फिर उसे पता चलता है कि इसी छांछड़ के पास वो पेटेंट हैं जिसके उपयोग की इजाजत लेने के लिए वह भारत आया है। यही आधुनिक शिक्षा पद्धति है। सड़े से सड़े टॉपिक को क्लिष्ट बनाना कोई इनसे सीखे। इसकी शुरुआत होती है ऐसी परिभाषाओं से, जिसे प्रस्तुत करने वालों के नाम याद रखना अपने आप में एक बड़ा काम है। खुद परिभाषा की भाषा इतनी जटिल होती है कि उसे याद रखने के लिए रट्टा मारना ही पड़ता है। ज्ञान का यह हाल है कम्यूटर और भौतिक शास्त्र में पीएचडी करने वाला भी रील्स-मीम्स के मामले में 10वीं फेल से गच्चा खा जाता है। एक दौर था जब सड़क किनारे दुकान लगाने वाला वाहन मिस्त्री बुलेट से लेकर बजाज स्कूटर तक का एवरेज बढ़ा देता था। कारों को मोडिफाई करने वालों की दुकानें भी खूब चलीं। आधुनिक ज्ञान ने इन दोनों का बंटाढार कर दिया। स्कूटर-कार अब ऐसी बनाई जाती है जिसे बिना लैपटॉप और खास सॉफ्टवेयर के ठीक ही नहीं किया जा सकता। एक तरफ जहां पूरी दुनिया तेजी से खत्म हो रहे जीवाश्म ईंधन पर हाय-तौबा मचा रही है वहीं दूसरी तरफ आधुनिक दुपहिया का माइलेज तेजी से कम हो रहा है। इसके विपरीत कारों का माइलेज बढ़ रहा है। जाहिर है कि विज्ञान किसके काम आ रहा है। ऐसे में केन्द्रीय माध्यमिक शिक्षा मण्डल (सीबीएसई) द्वारा किये जा रहे प्रयासों की सराहना करनी होगी। नए सत्र में तीसरी और छठवीं के पाठ्यक्रम में कुछ बदलाव किये जा रहे हैं। कहा जा रहा है कि अब प्रयोगशाला विधि, ग्रुप डिस्कशन, क्रिएटिव एक्टिविटीज और लेक्चर के नए तौर तरीकों को शामिल किया जाएगा। पर इससे पहले हमें यह देखना होगा कि स्टाफ रूम की गपोड़बाजी के अलावा शिक्षकों की इस फौज ने क्या कभी खुद किसी विषय पर ग्रुप डिस्कशन किया है? वैसे भी नई शिक्षा नीति ने शिक्षकों को बाबू बनाकर छोड़ दिया है। जो थोड़ा वक्त उसे मिलता है उसमें वह भांति-भांति के रजिस्टर-रिपोर्ट तैयार कर रहा होता है। इसका बोझ और तनाव इतना है कि वह न तो पाठ्यक्रम पर फोकस कर पाता है और न ही कुछ नया सोच पाता है। कहीं ऐसा न हो कि महत्वाकांक्षी नई शिक्षा नीति भी एक और फंडा मात्र बन कर रह जाए।

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