-दीपक रंजन दास
रायपुर में एक करीबी मित्र थे. लंबे समय से बीमार चल रहे थे. उनकी किडनी खराब हो गई थी. डायलिसिस चल रहा था. थोड़ा सा भोजन और चम्मच भर पानी पर दिन बीत रहे थे. पत्नी ने किडनी देने का प्रस्ताव दिया. टेस्ट में वे सफल भी रहीं. पर पति ने मना कर दिया. उनका मानना था कि जितनी जिन्दगी लिखी है, जितना साथ लिखा है उसे स्वीकार करना चाहिए. भिलाई में एक अस्पताल सहकर्मी के पिता की तबियत बिगड़ी. अस्पताल ले जाने पर चिकित्सकों की राय थी कि जीवन संकट में है. एक अंतिम कोशिश की जा सकती है. इसके लिए उन्हें वेंटीलेटर पर डालना होगा. रोगी खुद इसके लिए तैयार नहीं हुआ. वह अंतिम सांसें परिवार वालों की सोहबत में लेना चाहता था. शिक्षित तटस्थ परिवार था. उन्हें वापस घर ले जाया गया. तड़के उन्होंने दम तोड़ दिया. तब पूरा परिवार उनके साथ जाग रहा था. किसी ने हाथ पकड़ रखा था तो कोई सिर पर हाथ फेर रहा था. कुछ लोग पैरों के पास बैठे थे. दवाओं के असर से वे कोई तकलीफ महसूस नहीं कर रहे थे. उनके चेहरे पर गहरे सुकून के भाव थे. जिसने जन्म लिया है, उसकी मौत तो एक दिन आनी ही है. वह कितनी खूबसूरत होगी इसका फैसला भी खुद को ही करना होता है. चिकित्सा विज्ञान ने काफी तरक्की कर ली है. किसी की आंख, किसी की किडनी तो किसी का लिवर लेकर अपनी जिन्दगी को आगे बढ़ाया तो जा सकता है पर इसकी अपनी कीमत होती है. स्वाभाविक रूप से शरीर किसी भी बाहरी वस्तु को स्वीकार नहीं करता. उसका प्रतिरोध तंत्र घुसपैठिये अंग को स्वीकार नहीं करता है. प्रतिरोध तंत्र को शांत रखने के लिए दवाइयां दी जाती हैं. ये दवाइयां तब तक चलती रहती हैं जब तक कि प्रत्यारोपित अंग को रोगी का शरीर स्वीकार नहीं कर लेता. ये दवाइयां काफी महंगी होती हैं. अधिकांश लोगों को इसकी जानकारी नहीं होती. इसके लिए उन्हें मानसिक रूप से तैयार होने का मौका ही नहीं मिलता. उनका पूरा ध्यान तो ऑर्गन डोनर और प्रत्यारोपण सर्जरी में लगने वाली रकम में लगा होता है. गरीब परिवार के युवाओं को अंग प्रत्यारोपण के लिए सरकारी मदद मिलती है. इसके बाद दवाओं के लिए भी उसे सहायता मिलती है. छत्तीसगढ़ में भी किडनी प्रत्यारोपण के कई मामले सरकारी मदद से हुए हैं. केन्द्र की योजना ऐसे सभी मरीजों को तीन साल तक प्रतिमाह 10 हजार रुपए का अनुदान देने की है. छत्तीसगढ़ के स्टेट ऑर्गन एंड टिश्यू ट्रांसप्लांट ऑर्गनाइजेशन (सोटो) ने पिछले साल 119 मरीजों की लिस्ट केन्द्र को भेजी थी पर उन्हें अब तक स्वीकृति नहीं मिली है. इसलिए ट्रांसप्लांट कराने वालों को दवाइयों के पैसे नहीं मिल रहे हैं. अब रोगियों के प्राण दोबारा संकट में हैं. सवाल यह उठता है कि ट्रांसप्लांट और दवाइयों का अप्रूवल एक साथ एक पैकेज के तहत क्यों नहीं कर दिया जाता?
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