सिल बट्टा. उत्तर प्रदेश के पूर्वी इलाके में इसे सिल लोढ़ा भी कहा जाता है. अपने आकार में ये कब आया इस पर बहस हो सकती है. लेकिन ये तो तय है कि इसका इस्तेमाल मानव जाति ने पाषाण काल के साथ ही किसी न किसी रूप में शुरु कर दिया होगा. अगर यकीन न हो तो याद करिए बहुत वीडियो में बंदर भी किसी खाने की सख्त चीज को दो पत्थरों से तोड़ते दिख जाते हैं. खैर यहां सिल लोढ़ा या सिल बट्टा का जिक्र उसके काल निर्धारण का नहीं है. बल्कि शहरों के विस्तार से पहले घर-घर के इस बेहद शानदार उपकरण को याद करना है.
नब्बे का दशक शुरु होने तक ये घर-घर में एक जरूरी चीज रही है. किसी-किसी घर में तो एक से ज्यादा सिल भी होती रही. एक सिल घर में खाना बनाने वाली चीजें तैयार करने के लिए, तो दूसरी भांग के लिए. हालांकि भांग की खास अलग से सिल कुछ ही इलाकों में मिलती रही है. उन्हीं लोगों के यहां पूरी रीति नीति से भांग छानते रहे हैं.
यूपी बिहार और इससे लगे मध्य प्रदेश के हिस्सों में तो सिल पर भांग को इस तरह से पिसा जाता है कि पीसते-पीसते सिल को बट्टे से उठा लिया जाता है. भांग घोटने की ये दशा तब आती है जब भांग इस कदर पिस चुकी होती है कि वो सिल और बट्टे के बीच किसी चिपकने वाले लेई की स्थिति में आ जाती है. ये सिद्धावस्था बहुत गंभीर अभ्यास के बाद ही आ पाती है. खासकर बनारस, प्रयागराज और मिथिला के इलाके में इसका प्रदर्शन कर सिद्ध जन आनंदित होते हैं.
बहरहाल, साधारण लोग सिल बट्टे का इस्तेमाल मसाले और नमक पीसने के लिए करते हैं. जिनके घरों में दही बड़े या इस तरह की दूसरी चीजें बनती रही हैं, मिक्सर के घर घर में पहुंचने से पहले उनके यहां दाल भी इसी पर पीसी जाती रही. याद रखने वाली बात है कि आठवें दशक तक बाजार में नमक के रोड़े मिला करते थे. जिसे सिल ही चूर्ण बनाती थी.
हिंदी भाषी प्रदेशों की और दक्षिण के हिस्सों के सिल के आकार प्रकार में काफी अंतर होता है. यूपी बिहार वगैरह के बट्टे या लोढ़े अपेक्षाकृत छोटे, चपटे या फलक के आकार वाले और दक्षिण में ज्यादातर गोल होते हैं. वहां के बट्टे वजन में अधिक होते हैं. उन्हें थोड़ी ताकत से घुमाने पर पिसाई हो जाती है, जबकि उत्तरी हिस्से में बार-बार रगड़ कर पीसने की रिवायत रही है.
घिसते-घिसते सिल बट्टा चिकना हो जाता था, तो उस पर छेनी चला कर दांतेदार बनाने वाले भी गांव-गांव घूमते रहते थे. वे घंटे डेढ घंटे सिल बट्टे पर छेनी को खास तरीके से चला कर बहुत छोटे छोटे गड्ढे बना दिया करते थे. इनसे सिल पर पिसाई आसान हो जाती थी
मिक्सर के इस दौर में भी बहुत से लोग सिल पर पिसे मसाले और चटनी के जायके को याद करते दिख जाएगे. क्योंकि इस पर हाथ से पिसने के कारण उतनी गर्मी पैदा नहीं होती थी जितनी मिक्सर के तेज-तेज चलने के कारण उसके जार में हो जाती है. यही कारण है कि बहुत से बड़े सेफ चेतावनी देते हैं कि मिक्सर में मसाले को पिसते समय ध्यान रखिएगा, गर्म हो कर मसाला जल न जाय.
हां, इस सिल का शादी-ब्याह, मुंडन जैसे सामाजिक आयोजनों में भी पड़ता है. लोक की बहुत सारी रीतियां इसके बगैर पूरी नहीं हो पाती. सिल को नमक से या राख से रगड़ रगड़ कर उस पर पहले पिसे मसाले की सुगंध और स्वाद को हटाया जाता था. फिर वो नया मसाला पिसने को तैयार हो जाती.
शहरों के बढ़ते विस्तार और मिक्सर की उपलब्धता से सिल का उपयोग बहुत सीमित हो गया. लिहाजा गांवों में तो आंगन में कहीं पड़ी मिल भी जाय, फ्लैट वाले घरों में इसे रखना आसान नहीं रह गया. लिहाजा रसोई और रिवाजों का बहुत खास सहायक घरों से बाहर हो गई.