-दीपक रंजन दास
आज विश्व सोशल मीडिया दिवस है। सोशल मीडिया का संसार आपके आसपास नहीं बल्कि आपकी मु_ी में होता है। इसकी शुरुआत 1997 में हुई। सिक्स डिग्रीज़ नाम के इस प्लैटफॉर्म पर लोगों ने दोस्त ढूंढने शुरू किये। पर तब मोबाइल और स्मार्ट फोन्स की पहुंच कम लोगों के बीच थी। भारत में इसकी शुरुआत 2004 में ऑरकुट से हुई। हालांकि इससे पहले 2003 में लिंकडइन आ चुका था पर यह केवल पेशेवरों के बीच ही बेहतर लोकप्रिय है। 2003 में माइस्पेस आ चुका था और इसके यूजर भी बढ़ रहे थे कि तभी मार्क जुकरबर्ग फेसबुक लेकर आ गए। देखते ही देखते इसके यूजर्स की संख्या तेजी से बढऩे लगी। आज 300 करोड़ से ज्यादा यूजर्स के साथ यह सबसे ज्यादा लोकप्रिय सोशल मीडिया प्लेटफार्म है। इसके बाद तो सोशल मीडिया साइट्स की बाढ़ सी आ गई। 2005 में रेडिट और यूट्यूब शुरू हो गया। 2006 में ट्विटर और टम्बलर आ गए। ट्विटर बाद में एक्स हो गया। 2010 में इंस्टाग्राम के आने के साथ ही रील्स के मायावी संसार का भी जन्म हो गया। इसके साथ ही पिंटरेस्ट भी आ गया। 2011 में स्नैपचैट आया जो आज भी युवाओं की पहली पसंद है। 2011 में स्नैपचैट ने शॉर्ट वीडियो शेयरिंग की शुरुआत की। 2016 में टिकटॉक आ गया। सोशल मीडिया की यह आभासी दुनिया कब वास्तविक दुनिया पर हावी हो गई पता ही नहीं चला। आज स्थिति यह है कि घर में पांच लोग बैठे हैं और सब अपने अपने मोबाइल स्क्रीन में आंखें गड़ाए हुए हैं। इस अ-वास्तविक दुनिया में लोगों के हजारों फ्रेंड्स हैं। लाखों फालोअर्स हैं। इनके टिके रहने की वजह भी एक ही है कि इसमें कोई कमिटमेंट नहीं है। यहां झूठी तारीफें हैं, हौसला अफजाई करने वाले शब्द हैं। तरह-तरह के इमोजी इस काम को और आसान बना देते हैं। रील्स और शाट्र्स की यह दुनिया इतनी रोचक हो चली है कि लोग अपना पूरा खाली समय इसी पर बिताना पसंद करते हैं। यही सोशल मीडिया आज प्रचार-प्रसार और रोजगार का भी साधन बन गया है। डोर-टू-डोर मार्केटिंग की जगह अब पर्सन-टू-पर्सन मार्केटिंग ने ले ली है। यहां न केवल नए प्रॉडक्ट्स को प्रोमोट किया जा सकता है बल्कि ग्राहकों को सीधे जोड़ा भी जा सकता है। ऑनलाइन पेमेन्ट और डोर-स्टेप डिलीवरी के जरिए लोग अपने घर में लेटे-लेटे ही खरीदारी कर सकते हैं। पर इस नो-कमिटमेंट वाली दुनिया के अपने खतरे भी हैं। यहां आभासी दोस्त रिश्तों में दरार डाल रहे हैं। घर-घर में संवादहीनता की स्थिति है। लोग आपस में कम और सोशल मीडिया पर ज्यादा बोलते हैं। कुछ तो यहीं अपना दिल खोलकर रख देते हैं। कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि सोशल मीडिया का हम नहीं बल्कि सोशल मीडिया खुद हमारा इस्तेमाल कर रहा है। लोग फालोअर्स बढ़ाने किसी भी हद तक जा रहे हैं। गंदी जुबान, भद्दे कमेंट्स और गंदे इशारों का यह सिलसिला बहुत महंगा पडऩे वाला है।
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