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Gustakhi Maaf: सिर्फ राजनीति नहीं है छात्रसंघ चुनाव

-दीपक रंजन दास
छत्तीसगढ़ के महाविद्यालयों में छात्रसंघ चुनाव को लेकर कुहासा अब भी छाया हुआ है. 2017 में तत्कालीन डॉ रमन सिंह सरकार ने इसपर प्रतिबंध लगा दिया था जिसे उसके बाद की भूपेश बघेल सरकार ने भी जारी रखा. अब विश्वविद्यालय ने इसे शैक्षणिक कैलेण्डर से ही दफा कर दिया है. उच्च शिक्षा विभाग का कहना है कि सेमेस्टर सिस्टम लागू होने के कारण अब छात्रसंघ चुनाव या पदाधिकारियों का मनोनयन दोनों ही अप्रासंगिक हो चुके हैं. वहीं अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद एवं नेशनल स्टूडेंट्स यूनियन ऑफ इंडिया चाहते हैं कि छात्रसंघ चुनाव दोबारा शुरू हों. देश में छात्र संघों को लोकतंत्र की पहली सीढ़ी माना जाता रहा है. असंख्य राजनेता इसी पृष्ठभूमि से आते हैं. छात्रसंघों का राजनीतिक दलों के प्रति स्पष्ट झुकाव भी दिखाई देता है. महाविद्यालय पहुंचते समय या फिर एक साल के भीतर विद्यार्थी वयस्कता को प्राप्त कर लेते हैं. उन्हें मतदान का अधिकार भी मिल जाता है. इसलिए उनमें राजनीतिक चेतना जगाने, राष्ट्रीय मुद्दों पर बहस करने की क्षमता विकसित करने के लिए छात्रसंघ एक रचनात्मक मंच जैसा है. पर छात्रसंघों का मौलिक प्रयोजन कुछ और ही था. वास्तव में वयस्क जीवन में लोगों में संगठन क्षमता विकसित करने, उन्हें अभिव्यक्ति के लिए मंच प्रदान करने के साथ ही उनके व्यक्तित्व का विकास करने में भी इसकी महत्वपूर्ण भूमिका होती है. इन्हीं उद्देश्यों के साथ 19वीं शताब्दी के आरंभ में इंग्लैंड के कैम्ब्रिज और ऑक्सफ़ोर्ड विश्वविद्यालयों में छात्र संघों का गठन प्रारंभ हुआ. तब ये सामाजिक समितियाँ थीं. 1860 के दशक की शुरुआत में यूरोप में प्रतिनिधि छात्र संगठनों का उदय हुआ. उन्होंने छात्र वाद-विवाद को संभव बनाया और अपने सदस्यों के हितों का प्रतिनिधित्व करना शुरू किया. विश्वविद्यालयीन समारोहों, सम्मेलनों और एक अंतर्राष्ट्रीय महासंघ ने यूरोपीय स्तर पर आदान-प्रदान को संभव बनाया. ब्रिटेन में पहला छात्र संघ 1884 में एडिनबर्ग विश्वविद्यालय में गठित छात्र प्रतिनिधि परिषद था. भारत प्रो-डेमोक्रेटिक रहा है. पिछली सरकारों ने विद्यार्थियों में राजनीतिक चेतना जागृत करने के लिए और भी उपाय किये. इनमें छात्र संसद शामिल है जो छात्रों को लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं और संसदीय कामकाज का अनुभव देता है. इसके तहत राष्ट्रीय युवा संसद योजना और भारतीय छात्र संसद जैसे कार्यक्रम चलाए जाते हैं. इनका उद्देश्य छात्रों में नागरिक शिक्षा, नेतृत्व कौशल और राष्ट्रीय मुद्दों पर जागरूकता को बढ़ावा देना है. ये संगठन छात्रों को सार्वजनिक बोलने का कौशल विकसित करने, अपने विचारों को व्यक्त करने और भारत के भविष्य के निर्माण में योगदान देने के लिए प्रोत्साहित करते हैं. फिर एकाएक क्या हुआ कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति और सेमेस्टर पद्धति का हवाला देकर इसका पटाक्षेप करने की नौबत आ गई. दरअसल, नई सोच लोगों के संगठित होने के खिलाफ है. श्रमिक संगठनों को बेअसर करने के बाद अब छात्र ही शेष बचे थे जहां से संगठित विरोध की आशंका थी. इसे भी खत्म करने का अर्थ राजसत्ता को फ्री-हैण्ड देना भी है. क्या यह स्वस्थ लोकतंत्र के अनुकूल है?

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Manoj Mishra

Editor in Chief

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