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Gustakhi Maaf: सनातन परम्पराएं और ‘दूध-भात’

-दीपक रंजन दास
भारत श्रुत ज्ञान को प्रधानता देता है। हमारी परम्पराएं, आस्थाएं, निष्ठा और विश्वास पीढ़ी दर पीढ़ी इसी तरह हस्तांतरित होती रही हैं। सनातन सम्पूर्ण कालखण्ड को युगों में भी बांटता है। प्रत्येक युग की अपनी-अपनी विशिष्टताएं हैं। स्पष्ट है कि जिस तरह समय किसी के लिए नहीं ठहरता, उसी तरह परम्पराएं भी काल के साथ बदलती रहती हैं। लोग अपने-अपने परिवार की मान्यताओं और संस्कारों के साथ जीते आए हैं। भारत पर एक के बाद एक अनेक विदेशी आक्रांताओं ने हमला किया, इस भूमि पर राज भी किया पर सनातन परम्पराएं अपना अस्तित्व कायम रखने में सफल हुईं। भारतीय परिवार की चार पीढिय़ां एक साथ रहती आई हैं। यही वजह है कि संस्कार भी दीर्घजीवी हुए हैं। अंग्रेजी शिक्षा पद्धति और आधुनिक जीवन शैली ने इन संस्कारों को नुकसान तो पहुंचाया पर उन्हें पूरी तरह नष्ट नहीं कर पाई। पहले कूटरचित किताबों और कथित पंडितों पर भरोसा करना शुरू किया और फिर एकल परिवारों में सिमटते चले गए। उचित अनुचित का ज्ञान देने वाला कोई भी नहीं रहा। इसीलिए अब परम्परा और संस्कारों की यादें धुंधली हो रही हैं। इस धुंधलेपन का फायदा वो लोग उठा रहे हैं जो हमेशा धर्म के नाम पर लोगों को ठगते आए हैं। वो हमारा दृष्टिकोण बदलने पर आमादा हैं। सनातन को किसी का भय नहीं है। सनातन को नहीं लगता कि अलग जीवन पद्धति धर्म को नष्ट कर सकती है। सनातन इंसानों के साथ-साथ पशु-पक्षियों और जीव-जंतुओं को भी साथ लेकर चलता है। उसके धर्म में इन सभी के लिए विशिष्ट स्थान है। यह अकेला धर्म है जो गौमाता और श्वान से लेकर चींटियों तक के भोजन को पुण्य से जोड़ता है। ‘दूध-भातÓ भी इसी परम्परा का हिस्सा है। संयुक्त परिवारों में सभी उम्र के बच्चे होते थे। कभी-कभी तो चाचा-भतीजा और मामा-भांजा के बीच भी उम्र का कोई अंतर नहीं होता था। ये सभी साथ-साथ खेलते थे। इनमें दो-ढाई साल के अबोध बालक से लेकर 15-16 साल तक के बच्चे शामिल होते थे। छोटे-बच्चों का ‘दूध-भात’ होता था। उनके लिए नियम शिथिल कर दिये जाते थे। आज भी जब छोटा बच्चा बैटिंग करने आता है तो उसे बॉल ढुलकाकर दी जाती है। आजादी के बाद यही परम्परा राजनीति में घुस आई। वर्ण व्यवस्था में सबसे नीचे आने वाले लोगों और धार्मिक अल्पसंख्यकों को ‘दूध-भात’ दिया जाने लगा। दरअसल, इन सबको जोड़ दिया जाए तो उच्च सवर्णों की संख्या हाशिए पर होती है। धीरे-धीरे यही भारतीय लोकतंत्र का मूलमंत्र हो गया। अल्पसंख्यकों से शुरू होकर यह धार्मिक-सामाजिक आधार पर पिछड़़े लोगों तक जाने लगा। अब तो आरक्षण 50 फीसदी से काफी ऊपर तक जा चुका है। इसके साथ ही तरह-तरह के नियम कानून बनाकर महिला और पुरुष आबादी को भी बांट दिया गया। अब इसपर भी बहस होती है कि कहां कितने महिला मतदाता हैं। दस-पांच साल में शायद कोई पार्टी केवल पुरुषों को ही रिझाने में जुट जाए। फिर पुरुष भी वोटबैंक होगा।

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