-दीपक रंजन दास
“टॉयलेट एक प्रेम कथा” तो आपने देखी ही होगी. घर में शौचालय नहीं होने के कारण एक दुल्हन अपने पति पर इतना दबाव बनाती है कि अंततः वह गांव की पंचायत का सिरदर्द बन जाता है. मामला मीडिया में छा जाता है और धीरे-धीरे लोगों को घर पर टॉयलेट बनाने का महत्व समझ में आने लगता है. लोगों को मानना पड़ता है कि यह केवल स्वच्छता का विषय नहीं है. यह मसला महिलाओं के सम्मान और सुरक्षा से भी जुड़ा हुआ है. महिला कांग्रेस की राष्ट्रीय अध्यक्ष और पूर्व आप नेता अलका लांबा ने इस मामले को फिर से उठा दिया है. लांबा ने अपने इंस्टाग्राम अकाउंट पर एक वीडियो साझा करते हुए लिखा है कि आचार संहिता के नाम पर उन्हें और एक महिला सांसद को सरकारी गेस्ट हाउस का शौचालय इस्तेमाल करने की अनुमति नहीं दी गई. एक भाजपा नेता ने इस आरोप का बड़ा बेतुका सा जवाब दिया है. उन्होंने कर्मचारी का बचाव करते हुए लिखा है कि वह आदेश से बंधा हुआ था. महिला नेताओं को इस बारे में अधिकारियों से बात करनी चाहिए थी. कहा जा सकता है कि यह नेता उस अदने कर्मचारी से बड़ा अहमक था. उन्हें पता भी है कि वो किस विषय पर बात कर रहे हैं? लघुशंका केवल नाम से ही लघु है. और शंका तो यह बिल्कुल भी नहीं है. जब लगती है तो लगती है और इस शंका का निवारण तत्काल करना होता है. पुरुष तो इसके निवारण के लिए कहीं भी गाड़ी रोककर सड़क किनारे ही धोती उठा लेते हैं. पर महिलाएं ऐसा नहीं कर सकतीं. उन्हें कम से कम एक ओट की जरूरत तो होती ही है. इसे समझने के लिए किसी का आईएएस या आईपीएस होना भी जरूरी नहीं है. एक मामूली मजदूर भी इस बात की अहमियत को जानता और समझता है. पीने का पानी और शौचालय के लिए तो फाइव स्टार होटल भी किसी को मना नहीं कर सकते. ऐसा देश में कानून है. वैसे देश स्वच्छता मोड में है. घर-घर शौचालय बन रहे हैं. प्रेस इंफर्मेशन ब्यूरो (पीआईबी) के मुताबिक 2 अक्टूबर 2014 से 13 मार्च 2020 के बीच सरकार ने 10 करोड़, 29 लाख, 21 हजार 674 घरों में शौचालय बनाने हेतु सब्सिडी दी है. आखिर क्यों बनवा रही है सरकार इतने सारे शौचालय? गांव का बच्चा, बूढ़ा और जवान तो खेतों में, नहर या तालाब किनारे जाने का अभ्यस्त था. पर सरकार जानती थी कि यह एक ऐसी सुविधा है जिसकी जरूरत कभी भी पड़ सकती है. शहरों में तो लोग अपने शयन कक्ष में ही अटैच्ड टॉयलेट बनवा लेते हैं. बिना शौचालय के घरों में महिलाओं, विशेषकर रुग्ण और गर्भवती महिलाओं को अनेक तकलीफों का सामना करना पड़ता है. पर इसी जरूरत को आचार संहिता के नाम पर गौण बना दिया गया. आचार संहिता कोई “अचार” तो है नहीं कि उसे नींबू का रस डालकर धूप में छोड़ दिया जाए.
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