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Gustakhi Maaf: धरती के भगवान तो ठगेंगे ही

-दीपक रंजन दास
आपको केवल वही ठग सकता है जिसपर आप भरोसा करते हैं. जिससे आप नफरत करते हैं, उसकी लगभग सारी बुराइयों और चूकों पर आपकी पैनी नजर होती है. इसलिए जिस पर आप संदेह करते हैं, वह कभी आपको ठग नहीं सकता. ठगी के शिकार को अकसर भोला-भाला माना जाता है पर यह सही नहीं है. ठगी के मूल में लालच होती है. लोग लालच में आकर ठगों की बातों पर भरोसा करते हैं और फिर जब चूना लग जाता है तो हाय तौबा मचाते हैं. फिर करने को ज्यादा कुछ रह नहीं जाता. ठगी का यह गोरखधंधा निजी रिश्तों से लेकर राजनीति तक जाता है. फिल्म “थ्री ईडियट्स” में एक चुटीला संवाद है – “धन होता सबके पास है पर देता कोई नहीं है. इस महापुरुष ने अपना धन आपके हाथों में दे दिया.” हमारा मानना है कि 95 प्रतिशत पाठक इसे सुधार कर पढ़ सकते हैं. कुछ समय पहले तक लोगों को लगता था कि सरकार के पास पैसे नहीं हैं. वह दीवालिया हो चुकी है. इसलिए लोगों को सरकार से सहानुभूति होती थी. सरकारी कामकाज में भुगतान विलम्ब से मिलता था इसलिए केवल वही लोग सरकार का काम करते थे जो भुगतान के लिए साल दो साल इंतजार कर सकते थे. शेष अपने आप इस दौड़ से बाहर हो जाते थे. पर जब केजरीवाल ने खजाने का मुंह खोला तो पुरानी राजनीतिक पार्टियां सकते में आ गईं. मरते क्या न करते, उन्हें भी अपनी पोटली खोलनी पड़ी. आज सभी पार्टियां एक दूसरे से ज्यादा बांटने की प्रतिस्पर्धा कर रही हैं. कोई यह फ्री कर रहा है तो कोई वह फ्री कर रहा है. हिसाब का जन्म भले ही भारत में हुआ हो पर 95 फीसदी से ज्यादा लोग हिसाब से बचना चाहते हैं. बच्चों की स्कूल फीस भरने के बाद कुछ ही लोग ऐसे होंगे जो उसमें अलग-अलग मदों में कितना-कितना पैसा लिया गया, इसपर नजर दौड़ाते होंगे. बिजली बिल में भी अधिकांश लोग केवल टोटल देखते हैं. उन्हें कितनी सब्सिडी दी गई है यह भी मोटे-मोटे अक्षरों में लिखा होता है पर बहुत कम लोग उसे पढ़ते हैं. अस्पताल का डीटेल बिल पढ़ने-समझने के लिए तो पूरा दिन चाहिए. कौन इतनी जहमत उठाएगा? खूब पढ़ा लिखा भारतीय ग्राहक भी सब्जियां खरीदने के बाद हिसाब लगाने की जहमत नहीं उठाना चाहता. सीधे दुकानदार से ही पूछ लेता है – कितना हुआ और फिर क्यूआर कोड को स्कैन करता है और यूपीआई से पेमेंट कर चुपचाप घर चला जाता है. ऐसे में कोई उन्हें सरकार का हिसाब किताब समझाने बैठे तो कौन उनकी सुनेगा? इसलिए राजनीतिक दलों के स्टार प्रचारक भर-भर के झूठ बोलते हैं और लोग ताली पीटने लगते हैं. जनता की मूर्खता पर उन्हें पूरा-पूरा भरोसा होता है. स्टार प्रचारक खुद इसी सामूहिक मूर्खता की उपज हैं. काश! किताबी शिक्षा के साथ ज्ञान भी कहीं खऱीदने को मिल जाता. लोग किलो-दो किलो ज्ञान भी ऑनलाइन आर्डर कर लेते.

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