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मजिस्ट्रेट को BNSS की धारा 358 के तहत अपराध का संज्ञान लेने का अधिकार नहीं: दिल्ली हाईकोर्ट

दिल्ली हाईकोर्ट ने स्पष्ट किया कि भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS) की धारा 358 (पहले CrPC की धारा 319) किसी मजिस्ट्रेट को किसी अपराध का संज्ञान लेने का अधिकार नहीं देती। BNSS की धारा 358 अदालत को ऐसे किसी भी व्यक्ति को समन जारी करने का अधिकार देती है, जो अभियुक्त नहीं है। हालांकि, साक्ष्यों से किसी अपराध का दोषी प्रतीत होता है। हालांकि, जस्टिस अमित महाजन ने स्पष्ट किया कि इस प्रावधान का प्रयोग केवल जांच या सुनवाई के दौरान ही किया जा सकता है (संज्ञान के चरण में नहीं)।इस मामले में शिकायतकर्ता ने विरोध याचिका दायर की, क्योंकि मजिस्ट्रेट ने उसके पति के खिलाफ क्रूरता की FIR का संज्ञान लिया था, उसके ससुराल वालों के खिलाफ नहीं। इसके बाद मजिस्ट्रेट कोर्ट ने ससुराल वालों को भी समन जारी किया। इस आदेश को चुनौती देते हुए ससुराल वालों ने यह याचिका दायर की। हाईकोर्ट ने इस प्रक्रिया में त्रुटि पाई और कहा, “संज्ञान केवल एक बार लिया जा सकता है और… मजिस्ट्रेट विरोध याचिका दायर करने पर पुनः संज्ञान नहीं ले सकते, क्योंकि यह पूर्व आदेश की समीक्षा के समान होगा।”
जहां तक BNSS की धारा 358 का संबंध है, हाईकोर्ट ने कहा कि यह केवल किसी अपराध की जांच या मुकदमे के दौरान ही लागू होती है। अदालत ने कहा, “संज्ञान लेने के बाद ऐसे मामले में जहां आगे कोई जांच निर्देशित नहीं की गई और किसी भी नई सामग्री के सामने आने पर कोई पूरक आरोपपत्र दायर नहीं किया गया, न्यायालय को ऐसे व्यक्ति को आरोपी के रूप में समन करने के लिए BNSS की धारा 358 के चरण तक प्रतीक्षा करनी होगी, जिस पर आरोपपत्र दायर नहीं किया गया।”

शिकायतकर्ता ने प्रस्तुत किया कि जब 21.06.2021 को मजिस्ट्रेट द्वारा पहली बार मामले को उठाया गया तो आरोपी को केवल नोटिस जारी किया गया, समन नहीं। इस प्रकार, यह तर्क दिया गया कि संज्ञान लेने के लिए कोई औपचारिक आदेश पारित नहीं किया गया और उसकी विरोध याचिका पर दिए गए आदेश वैध है। इससे असहमत होते हुए हाईकोर्ट ने कहा कि केवल इसलिए कि मजिस्ट्रेट ने स्पष्ट रूप से “संज्ञान” शब्द का प्रयोग नहीं किया, इसका अर्थ यह नहीं माना जा सकता कि कोई संज्ञान लिया ही नहीं गया, खासकर जब नोटिस जारी किया गया।
अदालत ने कहा, “यह सर्वविदित है कि संज्ञान लेने में कोई औपचारिक कार्रवाई शामिल नहीं है। मजिस्ट्रेट को संज्ञान लेने के चरण में कोई आदेश पारित करने की भी आवश्यकता नहीं है।” अदालत ने आगे स्पष्ट किया कि जब कोई मजिस्ट्रेट पुलिस रिपोर्ट के आधार पर किसी अपराध का संज्ञान लेता है तो वह अपराध का भी संज्ञान लेता है। अदालत द्वारा नोटिस जारी करने का आदेश यह दर्शाता है कि अदालत ने रिपोर्ट का अवलोकन किया था और उस पर ध्यान दिया। इस बात पर विचार करते हुए कि क्या मजिस्ट्रेट पति के विरुद्ध अपराध का संज्ञान लेने के बाद ससुराल वालों के विरुद्ध संज्ञान लेने के लिए विरोध याचिका पर विचार कर सकता था, अदालत ने रमाकांत सिंह एवं अन्य बनाम झारखंड राज्य एवं अन्य (2023) का हवाला दिया, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि आरोपपत्र पर संज्ञान लेने के बाद मजिस्ट्रेट संज्ञान लेने के आदेश के विरुद्ध विरोध याचिका पर विचार नहीं कर सकता। वर्तमान मामले में अदालत ने कहा, “आरोपपत्र दाखिल होने के लगभग एक वर्ष बाद और संज्ञान लिए जाने के आठ महीने से अधिक समय बाद विरोध याचिका दायर की गई। 10.10.2023 का आदेश, जिसके तहत याचिकाकर्ताओं को समन जारी किया गया, आरोपपत्र दाखिल होने के बाद उनके पुत्र को नोटिस जारी किए जाने के दो वर्ष से अधिक समय बाद पारित किया गया। चूंकि मजिस्ट्रेट अपने आदेश की समीक्षा नहीं कर सकते, इसलिए वे ऐसी परिस्थितियों में विरोध याचिका पर कार्रवाई नहीं कर सकते, सिवाय इसके कि याचिका को शिकायत के रूप में माना जाए, जो वर्तमान मामले में नहीं किया गया।” इस प्रकार, याचिका स्वीकार की गई और पुनर्विचार आदेश रद्द कर दिया गया।


 

Manoj Mishra

Editor in Chief

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