-दीपक रंजन दास
पूरा सिस्टम ध्वस्त हो चुका है. ऐसा मान लिया गया है कि लोग राहत और न्याय के लिए अनंतकाल तक इंतजार कर सकते हैं. ओड़ीशा के बालेश्वर स्थित फकीर मोहन ऑटोनॉमस कॉलेज की घटना भी इसी बेहिसी का परिणाम है. कालेज की छात्राएं प्राचार्य से शिकायत करती हैं कि शिक्षा संकाय के अध्यक्ष उनसे गंदी बातें करते हैं, भद्दे इशारे करते हैं और शारीरिक संबंध बनाने की मांग करते हैं. प्राचार्य ने एक समिति बना दी जिसने 12 दिन में अपनी रिपोर्ट दी. इसके बाद भी आरोपी विभागाध्यक्ष के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुई. इनमें से एक छात्रा ने समिति की रिपोर्ट आने के बाद प्राचार्य से सम्पर्क किया था. कोई कार्रवाई नहीं होने के कारण वह आक्रोश में थी. उसने प्राचार्य से कहा कि वह अब न्याय के लिए और इंतजार नहीं कर सकती और बाहर जाकर उसने खुद को आग लगा ली. लगभग 95 फीसदी झुलसी छात्रा ने बाद में भुवनेश्वर के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में दम तोड़ दिया. अगर छात्रा ने ऐसा न किया होता तो शायद छात्राओं के मानसिक और शारीरिक शोषण की यह कहानी कभी सामने ही नहीं आ पाती. ऐसे न जाने कितने ही अधिकारी हैं जिनपर आम जनता की हिफाजत की जिम्मेदारी है पर संवेदनशीलता रत्तीभर भी नहीं. कहा तो यहां तक जाता है कि यदि कोई वाकई संवेदनशील हो गया तो इस सिस्टम से सिर टकराकर खुद को घायल कर लेगा या फिर खुदकुशी कर लेगा. इसलिए सिस्टम के साथ चलने में ही भलाई है. और सिस्टम काम नहीं करता. बहरहाल, छात्रा के आत्मदाह के बाद शासन-प्रशासन नींद से जागा. पुलिस ने पहले दोषी विभागाध्यक्ष को और फिर संवेदनाहीन प्राचार्य को गिरफ्तार कर लिया. प्राचार्य वैसे शायद बच भी जाता पर छात्रों के उग्र प्रदर्शन के बाद पुलिस को उसकी भी गिरफ्तारी में ही समझदारी लगी. छात्रा के अग्निस्नान की इस घटना के बाद राष्ट्रपति ने भी उसका हालचाल पूछा. उन्होंने इलाज में पूर्ण सहयोग का आश्वासन भी दिया. 95 फीसदी जले हुए किसी के लिए यह आश्वासन कोई मायने नहीं रखता था. अब आते हैं मूल विषय पर. छात्रा ने केवल गुस्से में आत्मदाह नहीं किया. शायद वह जानती थी कि बिना किसी बड़ी घटना के शासन की नींद नहीं खुलने वाली. उस बड़ी घटना के लिए उसने अपनी कुर्बानी दे दी. उसने मरकर उस व्यवस्था की पोल खोल दी जिसे लोग अनुशासन कहते हैं. शिक्षक किसी छात्रा का मानसिक और शारीरिक बलात्कार करे और पूरा सिस्टम उसे चुप रहने की सलाह दे तो वह क्या करे? छात्राएं चाहतीं तो उक्त शिक्षक को चप्पल से मार सकती थी. इसमें शायद पूरे कैम्पस का सहयोग भी उसे मिल जाता. पर इसके बाद मौजूदा कानून इन विद्यार्थियों का ही भविष्य चौपट कर देता. अधिकांश विद्यार्थियों के माता-पिता इसके लिए सहमत नहीं होते. हर तरफ से मायूस होने के बाद उसने यह कदम उठाया होगा. यह कुर्बानी व्यर्थ नहीं जानी चाहिए.
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