रायपुर (श्रीकंचनपथ न्यूज़)। दुर्ग लोकसभा क्षेत्र में इस बार का चुनावी नजारा रोचक होने जा रहा है। इस संसदीय क्षेत्र की राजनीति साहू और कुर्मी समाज के ईर्द-गिर्द घूमती रही है। दोनों पार्टियों ने साहू-कुर्मी प्रत्याशियों को आमने-सामने कर जातीय समीकरणों का ताना-बाना बुन दिया है। अलग छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद दुर्ग संसदीय क्षेत्र का यह पांचवां मुकाबला है और अब तक कांग्रेस को महज एक बार सिर्फ इसी जातीय समीकरण के चलते जीत मिली। इसलिए इस बार के मुकाबले से दोनों दलों को काफी आशाएं हैं। देशभर में चल रही मोदी लहर भाजपा का मजबूत आधार है तो कांग्रेस प्रत्याशी को कार्यकर्ताओं का टोटा हो गया है। भूपेश बघेल, ताम्रध्वज साहू और देवेन्द्र यादव के अलग-अलग क्षेत्रों से चुनाव लडऩे के चलते पाटन, दुर्ग ग्रामीण और भिलाई नगर में दुर्ग के कांग्रेस प्रत्याशी कई तरह की दिक्कतों से जूझ रहे हैं।
दुर्ग जिले का राजनीतिक इतिहास कुर्मी और साहू समाज की गोलबंदी से भरा पड़ा है। चंदूलाल चंद्राकर ने दुर्ग को कांग्रेस का अभेद्य किला बनाया तो आगे चलकर ताराचंद साहू ने जातीय और सामाजिक लामबंदी कर इसी दुर्ग को भाजपा का गढ़ बना दिया। छत्तीसगढ़ अलग राज्य बनने के बाद 2004 में पहली बार हुए चुनाव में दोनों दलों ने कुर्मी और साहू प्रत्याशी उतारे थे। तब भाजपा से ताराचंद साहू और कांग्रेस से भूपेश बघेल का मुकाबला हुआ था। इस मुकाबले में ताराचंद साहू ने भूपेश बघेल को 61 हजार से ज्यादा मतों से पराजित किया। इसके बाद 2009 में दोनों दलों ने सामान्य वर्ग के प्रत्याशियों पर दाँव लगाया। इस चुनाव में स्वतंत्र उम्मीदवार के रूप में ताराचंद साहू मैदान में थे, जो तीसरे नंबर पर रहे। यह चुनाव भाजपा की सरोज पाण्डेय ने 9,954 मतों के मामूली अंतर से जीता। अगली दफा 2014 में चुनाव हुए तो भाजपा की सरोज पाण्डेय के सामने कांग्रेस ने जातीय कार्ड खेलते हुए ताम्रध्वज साहू को मैदान में उतारा। राज्य बनने के बाद यह पहला अवसर था, जब कांग्रेस ने जीत का परचम लहराया। वजह साहू समाज की लामबंदी ही थी। इस चुनाव को ताम्रध्वज साहू ने 16,848 मतों से जीता। 2019 के पिछले चुनाव में दोनों दलों ने कुर्मी प्रत्याशियों पर दाँव लगाया। भाजपा से विजय बघेल तो कांग्रेस से प्रतिमा चंद्राकर मैदान में थी। विजय बघेल ने रिकार्ड 3,91,978 मतों से चुनावी जीत दर्ज की। भाजपा ने इस बार भी विजय बघेल पर भरोसा जताया है तो कांग्रेस ने युवा और नए चेहरे के रूप में राजेन्द्र साहू को उतारा है।
मनराखन ने किया एकजुट, ताराचंद को मिला फायदा
लोकसभा चुनाव के शुरूआती दौर की चर्चा करें तो दुर्ग क्षेत्र कांग्रेस का गढ़ रहा, लेकिन बाद में भाजपा ने इस सीट पर अपनी धाक जमाई। 1952 से 1971 तक यहां कांग्रेस का दबदबा रहा। 1977 में जनता पार्टी ने यहां से जीत दर्ज की। फिर 1980 में दुर्ग सीट कांग्रेस के खाते में चली गई। 1989 में जनता दल के उम्मीदवार को जीत मिली। 1991 में कांग्रेस ने जीत हासिल कर हिसाब बराबर किया। 1996 से 2009 तक इस सीट पर भाजपा का कब्जा रहा। 1996 के पहले तक कांग्रेस यहां कुर्मी कार्ड खेलकर जीत हासिल करती रही, लेकिन 1996 के चुनाव में पहली बार भाजपा ने भिलाई इस्पात संयंत्र के अधिकारी रहे डॉ. मनराखन लाल साहू पर दांव चलकर जातीय समीकरणों को हवा दी। हालांकि मनराखनलाल साहू चुनाव हार गए, लेकिन इस चुनाव के जरिए वे साहू समाज को एकजुट करने में कामयाब रहे, जिसका लाभ इसी साल फिर से हुए चुनाव में ताराचंद साहू को मिला। तब से लेकर आज तक दुर्ग लोकसभा के नतीजे जातीय समीकरणों से ही तय होते आए हैं। ज्यादातर दुर्ग संसदीय सीट पर आमने-सामने का ही मुकाबला होता आया है।
कांग्रेस को कार्यकर्ताओं का टोटा
दुर्ग पर इस बार पूरे देश की नजरें लगी है। वजह यह है कि यहां के कुल 6 चेहरे अलग-अलग क्षेत्रों से लोकसभा का चुनाव लड़ रहे हैं। बड़े चेहरों और जातीय समीकरणों के मद्देनजर कांग्रेस ने पूर्व मुख्यमंत्री भूपेश बघेल को राजनांदगांव, पूर्व गृहमंत्री ताम्रध्वज साहू को महासमुंद और एक विधायक देवेन्द्र यादव को बिलासपुर से प्रत्याशी बनाया है। वहीं दुर्ग की पूर्व सांसद सरोज पाण्डेय को भाजपा ने कोरबा क्षेत्र से टिकट दिया है। दुर्ग लोकसभा से दोनों दलों के प्रत्याशी तो मैदान में है ही। क्योंकि सर्वाधिक कांग्रेस के नेता दीगर क्षेत्रों से लड़ रहे हैं, इसलिए उनके समर्थक भी बड़ी संख्या में उनके क्षेत्र में पहुंच गए हैं। भूपेश बघेल के प्रचार के लिए जिलेभर के कार्यकर्ता राजनांदगांव में हैं तो ताम्रध्वज साहू के समर्थक भी महासमुंद चले गए हैं। देवेन्द्र यादव के पास युवाओं की अच्छी-खासी फौज है, लेकिन उनके समर्थक भी बिलासपुर में हैं। इसके चलते दुर्ग के कांग्रेस प्रत्याशी राजेन्द्र साहू को कार्यकर्ताओं की कमी से जूझना पड़ रहा है। इसके चलते 9 विधानसभा क्षेत्रों वाले दुर्ग संसदीय क्षेत्र में उन्हें कई क्षेत्रों में नुकसान होने का अंदेशा है।
सामाजिक लामबंदी हो रही नाकाम
दुर्ग में साहू समाज की जनसंख्या कुर्मी समाज से ज्यादा है। इसी जातीय समीकरण को ध्यान में रखते हुए कांग्रेस ने राजेन्द्र साहू के चेहरे पर दाँव लगाया है, लेकिन साहू समाज को भाजपा का परंपरागत वोटबैंक माना जाता है। अपवादों को छोड़ दें तो यह समाज सदैव भाजपा के साथ रहा है। 2014 के चुनाव में जरूर इस समाज ने कांग्रेस के पक्ष में एकजुटता दिखाई थी, लेकिन इसकी वजह ताम्रध्वज साहू का चुनाव मैदान में होना थी। इससे पहले भाजपा छोडऩे वाले ताराचंद साहू के चुनाव लडऩे पर 2009 में इस समाज के वोट बँट गए थे, जिसका लाभ भाजपा को मिला। इस बार साहू-कर्मी प्रत्याशियों के मैदान में होने के बाद अलग-अलग कयास लगाए जा रहे हैं। बताते हैं कि कांग्रेस प्रत्याशी राजेन्द्र साहू ने साहू समाज को लामबंद करने की कोशिश की है, लेकिन संभावना जताई जा रही है कि इस बार इस समाज के वोटों का बंटवारा हो सकता है। हालांकि भाजपा के साथ भी कुछ इसी तरह की स्थितियां हैं। भूपेश बघेल के मुख्यमंत्री बनने के बाद कुर्मी समाज कांग्रेस के साथ खड़ा हो गया था। हालांकि कुर्मी प्रारम्भ से ही कांग्रेस के साथ रहे हैं।
भाजपा को मोदी लहर पर भरोसा
भले ही दुर्ग का राजनीतिक इतिहास सामाजिक समीकरणों पर निर्भर करता हो, किन्तु पूरे देश में मोदी का जलवा कायम है और इससे दुर्ग संसदीय क्षेत्र भी अछूता नहीं है। जमीनी स्तर पर आम मतदाताओं के बीच पीएम नरेन्द्र मोदी की छवि अच्छी है। केन्द्र सरकार के कामकाज की भी लोग तारीफ करते हैं। खासकर राम मंदिर और रामलला दर्शन योजना लोगों की जुबान पर है। ऐसे में दुर्ग में भी भाजपा प्रत्याशी को मोदी के नाम और काम का लाभ मिलने की गुंजाइश ज्यादा है। मोदी की गारंटी के रूप में महतारी वंदन योजना को लागू करने के बाद महिलाओं में भाजपा के प्रति विश्वास बढ़ा है। इसलिए महिला वोटर्स का रूझान भी काफी हद तक भाजपा के प्रति है। कांग्रेस और उसके प्रत्याशी कई तरह के मुद्दे जरूर उठा रहे हैं, लेकिन इसका आम मतदाताओं पर कोई असर नहीं है। साहू समाज के लोगों का साफ कहना है कि ताम्रध्वज साहू की छवि के मुकाबले वर्तमान प्रत्याशी की छवि कमतर है। इन तमाम हालातों के बावजूद दुर्ग संसदीय क्षेत्र में इस बार का मुकाबला रोचक होने की संभावना है, क्योंकि कांग्रेस प्रत्याशी भी कड़ी टक्कर देने में सक्षम है।
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