-दीपक रंजन दास
वकालत का पेशा है ही ऐसा. आरोपित को ज्यादा से ज्यादा परेशान करने अथवा लंबी से लंबी सजा दिलाने के लिए वकील अपने मुवक्किलों को तरह-तरह की सलाह देते हैं. इन सलाहों के चलते कई बार विवाद बढ़ भी जाता है। कई बार तो केस का स्वरूप ही पूरा का पूरा बदल जाता है और जब तक मामला खत्म होता है उभय पक्ष खुद उलझन में पड़ जाते हैं कि यह केस आखिर है किसका। कई बार घटनाओं को सिलसिलेवार बनाने और कहानी को विश्वसनीय बनाने के लिए उसमें जोड़-घटाव भी किया जाता है। कुल मिलाकर उद्देश्य यही होता है कि यदि वकील प्रार्थी का है तो उसे न्याय मिले और आरोपित को ज्यादा से ज्यादा सजा सुनाई जाए। यदि वकील आरोपित की पैरवी कर रहा है तो वह आरोपों को झुठलाने अपने मुवक्किल को सुरक्षित रखने के लिए पूरी ताकत लगा देता है। यही इस पेशे की मांग भी है इसलिए इसे अब तक किसी ने गलत नहीं कहा। पर वकालत केवल न्याय दिलाने की लड़ाई नहीं है। यह वकीलों की आजीविका भी है। इसलिए कभी कभी वकील केस को लंबा खींचने के लिए उसमें पेंच डालते चले जाते हैं। अब न्याय का सिद्धांत बदल रहा है। दिल्ली हाईकोर्ट ने ऐसे वकीलों को एक मशविरा दिया है। जस्टिस प्रतिभा एम. सिंह और जस्टिस अमित शर्मा की बेंच ने कहा कि शादी से जुड़े विवादों में अक्सर वकील अपने मुवक्किलों को उकसाने का प्रयास करते हैं। कोर्ट ने कहा कि वकीलों को अपने मुवक्किलों को वैवाहिक विवाद सुलझाने की सलाह देनी चाहिए, न कि उन्हें एक-दूसरे के खिलाफ आरोप-प्रत्यारोप करने और इसे ‘हवा’ देने का मशविरा देना चाहिए। हाईकोर्ट बेंच ने कहा कि वैवाहिक विवादों में वादियों-प्रतिवादियों को भावनात्मक आघात का सामना करना पड़ता है, उनके निजी जीवन में ठहराव सा आ जाता है। कोर्ट वादियों-प्रतिवादियों की ‘हताशा और निराशा’ से भी अवगत है। हाईकोर्ट ने कहा, वकीलों की न केवल अपने मुवक्किल के प्रति बल्कि अदालत और समाज के प्रति भी बड़ी जिम्मेदारी होती है। जहां तक न्याय का प्रश्न है तो वकील ही नहीं, पुलिस भी इस तरह की हरकतें करती है। प्रार्थी और आरोपी के प्रति उसका व्यवहार अकसर जान पहचान, रसूख या अन्य कारणों से तय होता है। किसी मामले को वह बेहद मामूली बना देते हैं तो किसी किसी मामले में इतनी धाराएं लगा देते हैं कि उसे अदालत में साबित करना तक कठिन हो जाता है। ऐसे मामलों में पुलिस को अदालत में फटकार भी मिलती है पर लाभ के मुकाबले यह फटकार काफी हल्की होती है। दरअसल, कानूनों की तंग गलियों में सबसे ज्यादा नुकसान न्याय के सिद्धांत का हुआ है। दोष मढऩे और साबित करने के बीच का फासला इतना लंबा होता है कि बाइज्जत बरी होने का फैसला आते तक कई बार आरोपी अपना पूरा जीवन जेल में बिता चुका होता है या फिर वहीं दम तोड़ चुका होता है।

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