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Gustakhi Maaf: थोड़ी सी पारदर्शिता यहां भी हो जाए

-दीपक रंजन दास
कर्नाटक गोल्ड स्मगलिंग केस में गिरफ्तार कन्नड़ एक्ट्रेस रान्या राव ने राजस्व खुफिया निदेशालय के अधिकारियों पर मारपीट करने और भूखा रखने का आरोप लगाया है। रान्या ने डीआरआई के अतिरिक्त महानिदेशक को पत्र लिखकर खुद को निर्दोष बताते हुए कहा कि उसे झूठे मामले में फंसाया गया है। रान्या ने लिखा कि डीआरआई के अफसरों ने उन पर खाली पेजों पर दस्तखत करने का दबाव बनाया। उसे भूखा रखा गया, 10-15 बार थप्पड़ भी मारे गए। इसके बाद 50-60 टाइप किए गए पेज और 40 खाली पेजों पर साइन कराया गया। रान्या को 3 मार्च को बेंगलुरु के केम्पेगौड़ा इंटरनेशनल एयरपोर्ट पर 14 किलो सोने केसाथ डीआरआई ने गिरफ्तार किया था। वह दुबई से लौट रही थी। पहले रान्या ने कहा था कि दुबई एयरपोर्ट पर एक शख्स ने उसे गोल्ड बिस्किट के दो पैकेट दिये थे। इन पैकेट्स को उसने क्रेप बैंडेज की मदद से अपनी जांघ के भीतर की ओर चिपका लिया था। क्रैप बैंडेज उसने एयरपोर्ट पर ही खरीदे थे। यह तरीका भी उसने यृट्यूब से सीखा था। पर बाद में रान्या अपने बयान से पलट गईं। उसने कहा कि कुछ अन्य सहयात्रियों को बचाने के लिए डीआरआई अधिकारियों ने उसपर फर्जी केस बनाया और दबाव डालकर बलपूर्वक उसके बयान हासिल किये। इस मामले में प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) और सीबीआई ने भी मामला दर्ज किया है। तीनों ही एजेंसियां अब उसके खिलाफ जांच कर रही हैं। यह कोई पहली बार नहीं है जब इन जांच एजेंसियों पर दबाव बनाने, प्रताडि़त करने और मामले को घुमाने के आरोप लगे हैं। जब मामला सीधे-सीधे स्मगलिंग का था और रान्या को सोने के साथ पकड़ा गया था तो फिर इस मामले में इतना झोल क्यों है कि वह अब सोना स्मगल करने से साफ-साफ इंकार कर पा रही है? यह तो अंग्रेजों की सरकार वाली बात हो गई। जो सरकार को सही लगा, वही कानून हो गया। दरअसल, ये जांच एजेंसियां अपनी करतूतों की वजह से ही बदनाम हुई हैं। जब भी कोई ऐसा मामला सामने आता है वह उसे ज्यादा से ज्यादा लोगों से जोडऩे की कोशिश करती है। इससे उसे लाइम लाइट जरूर मिल जाता है पर मामले की बखिया उधड़ जाती है। उसमें जितनी कहानियां जोड़ी जाती हैं उतने ही पेंच भी पैदा हो जाते हैं। बाद में सालों-साल केस की सुनवाई होती है और फिर आरोपी बरी हो जाता है। इन एजेंसियों के कन्विक्शन रेट को देखेंगे तो इसका सबूत भी मिल जाएगा। क्यों नहीं ये एजेंसियां अपनी जांच में पारदर्शिता ला पाती हैं? क्यों नहीं सबूतों और गवाहों को ये किसी भी शंका से परे रख पाती हैं? क्या हर मामले को राजनीतिक एंगल देना जरूरी है? ज्यादा से ज्यादा लोगों को लपेटने की कोशिश में अकसर केस ही कमजोर हो जाता है। इससे राजनीतिक हित तो सध जाता है पर इन एजेंसियों को दी गई असीमित शक्तियां बेमानी हो जाती हैं।

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Manoj Mishra

Editor in Chief

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