अखाड़ा यानी आदि शंकराचार्य के वक्त से बनी नागा साधुओं की हथियारबंद सेना। मकसद भी सिर्फ एक, सनातन की रक्षा। जो शास्त्र से नहीं माने, उसके लिए शस्त्र भी तैयार। अखाड़ों में आज भी लाठी घुमाने से लेकर बंदूक चलाने तक की ट्रेनिंग दी जाती है।
इस सेना का सैनिक या यूं कहें कि नागा बनना आसान नहीं। इसके लिए अपना और 16 पीढ़ियों का पिंडदान करना होता है। इसके कई और चरणों से भी गुजरना होता है। आखिर में ‘टंग तोड़’ प्रक्रिया सबसे अहम है। इसका मकसद है काम-वासना को वश में करना। यह प्रक्रिया कैसे होती है इस बारे में कोई नागा साधु कभी नहीं बताता।
ऐसा माना जाता है कि मुगलों के आक्रमण से सनातन धर्म की रक्षा करने आदि शंकराचार्य ने शस्त्रधारी साधुओं के कुछ संगठन बनाए और इन्हें अखाड़ा नाम दिया।
शुरुआत में केवल चार प्रमुख अखाड़े थे, लेकिन वैचारिक मतभेद की वजह से उनका बंटवारा होता गया और आज 13 प्रमुख अखाड़े हैं। इन 13 अखाड़ों में से एक है आवाहन अखाड़ा। इसकी स्थापना 547ई. में हुई।
दैनिक भास्कर की अखाड़ों की कहानी सीरीज की पहली किस्त में पढ़िए श्री शंभू दशनाम आवाहन अखाड़े की पूरी कहानी…
अखाड़े के बारे में बताने से पहले आपको बता दें, यहां कि एक परंपरा 1500 साल बाद टूटने वाली है।
27 जनवरी को श्री शंभू दशनाम आवाहन अखाड़े में पहली बार किसी महिला को नागा बनाया जाएगा। वो भी एक ऐसी महिला को जो शराबी पति से बचकर आई।
अखाड़े में महिला को नागा बनाने का अनुष्ठान चल रहा है। 26 साल की भुवनेश्वरी गुजरात के सौराष्ट्र की रहने वाली हैं। 15 साल की उम्र में उनकी शादी हो गई थी।
भुवनेश्वरी कहती हैं, ‘शादी के कुछ दिन बाद ससुरालवाले परेशान करने लगे। जब पिता को पता चला तो वे मुझे घर ले आए।’
भुवनेश्वरी कहती हैं, ‘शादी के कुछ दिन बाद ससुरालवाले परेशान करने लगे। जब पिता को पता चला तो वे मुझे घर ले आए।’
भुवनेश्वरी को पुरुषों साधु की तरह ही नागा बनाया जाएगा। अंतर सिर्फ एक होगा कि निर्वस्त्र होने की बजाय, वे शरीर पर बिना सिला कपड़ा लपेटेंगी। 26 जनवरी की रात से 24 घंटे का व्रत शुरू होगा। दूसरे दिन ब्रह्म मुहूर्त में संगम के घाट पर ले जाया जाएगा। वे अपना और पूरे परिवार का पिंडदान करेंगी। उनका मुंडन भी होगा।
अपने बालों की ओर देखते हुए वे कहती हैं, ‘पसंदीदा चीज का अर्पण ही सही मायने में त्याग है।
भुवनेश्वरी कहती हैं, ‘मार्किन यानी बिना सिले कपड़े शरीर पर लपेटकर गर्दन के पीछे गांठ बांध लेंगे। इस गांठ को ब्रह्मगाठी कहते हैं। इस कपड़े को कफन भी कहते हैं, क्योंकि ये धारण करते ही ऐसा मान लिया जाता है कि सभी के लिए हम मर गए।’
आदि शंकराचार्य ने 4 बनाए, अब हो गए 13 अखाड़े
अखाड़ा यानी आदि शंकराचार्य के वक्त से बनी नागा साधुओं की हथियारबंद सेना। मकसद भी सिर्फ एक, सनातन की रक्षा। जो शास्त्र से नहीं माने, उसके लिए शस्त्र भी तैयार। अखाड़ों में आज भी लाठी घुमाने से लेकर बंदूक चलाने तक की ट्रेनिंग दी जाती है।
इस सेना का सैनिक या यूं कहें कि नागा बनना आसान नहीं। इसके लिए अपना और 16 पीढ़ियों का पिंडदान करना होता है। इसके कई और चरणों से भी गुजरना होता है। आखिर में ‘टंग तोड़’ प्रक्रिया सबसे अहम है। इसका मकसद है काम-वासना को वश में करना। यह प्रक्रिया कैसे होती है इस बारे में कोई नागा साधु कभी नहीं बताता।
ऐसा माना जाता है कि मुगलों के आक्रमण से सनातन धर्म की रक्षा करने आदि शंकराचार्य ने शस्त्रधारी साधुओं के कुछ संगठन बनाए और इन्हें अखाड़ा नाम दिया।शुरुआत में केवल चार प्रमुख अखाड़े थे, लेकिन वैचारिक मतभेद की वजह से उनका बंटवारा होता गया और आज 13 प्रमुख अखाड़े हैं। इन 13 अखाड़ों में से एक है आवाहन अखाड़ा। इसकी स्थापना 547ई. में हुई।
कुंभ क्षेत्र में काली मार्ग पर श्री शंभू पंचदशनाम आवाहन अखाड़े का शिविर लगा है। यहां से करीब 12 किलोमीटर दूर गांव मड़ौका में अखाड़े का मंदिर है। जिस दिन पेशवाई हुई मैं इसी मंदिर के ठीक सामने खड़ी थी।
पेशवाई यानी अखाड़ों का स्वागत या कुंभ क्षेत्र में प्रवेश। ये एक बड़े जुलूस के रूप में होता है। इसे देख कर पता लगा कि उस दौर में राजा-महाराजा किस तरह चांदी के रथ, हाथी-घोड़े, ढोल-नगाड़े और अपनी फौज के साथ निकलते होंगे।
सच में श्री पंचदशनाम अखाड़े की पेशवाई किसी राजशाही से कम नहीं थी। यहां मंदिर के गेट पर अखाड़े के नाम के नीचे ही श्री गुरु गणेश विजयते तराम् लिखा है। यानि गुरु और भगवान गणेश की कृपा से सदा विजय होती रहे। इस अखाड़े के इष्टदेव भगवान श्री गणेश हैं।
मैंने राजशाही तो नहीं देखी, लेकिन महाकुंभ में शैव संन्यासी संप्रदाय के आवाहन अखाड़े की पेशवाई का नजारा देखकर लगा था कि उसी युग में हूं।
उस दिन मंदिर के बाहर श्रद्धालुओं की भीड़ हर-हर महादेव के जयघोष कर रही थी। मंदिर के अंदर सभी साधु तेज-तेज कदमों से चहल-कदमी कर रहे थे। सभी कुंभ क्षेत्र में प्रस्थान के लिए शुभ घड़ी के इंतजार में थे।
जैसे ही ये घड़ी आई, मानों अखाड़े के नागा साधुओं की सेना का बारह साल का इंतजार खत्म हो गया। महाकुंभ की खुशी नागा साधुओं के रूप, शृंगार और करतबों में दिखाई देने लगी।
ये सब करिश्मे की तरह था। सड़क के दोनों ओर जहां तक नजर जा रही थीं, देखने वालों के सिर ही सिर नजर आ रहे थे।
जटाओं और शरीर पर उड़ेल ली गोबर से बनी भस्म मंदिर के बाहर ऊंट, घोड़े, पालकियां, चांदी के सिंहासन के साथ बैंड-बाजे भी थे। पूजन होने के बाद मंदिर के बाहर नागा साधुओं ने अपना 17 तरह से शृंगार करना शुरू किया। एक खास किस्म की भस्म अपने शरीर और जटाओं में उड़ेलने लगे। ये कोई साधारण भस्म नहीं, इसे बनाने में कई दिन लग जाते हैं।
नागा साधु जो भस्म रमाते हैं, वह सीधे धूनी से नहीं लाई जाती। लकड़ी को धूनी में जलाने से निकली राख को चंदन के लेप में मिलाकर गोलियां बनाई जाती हैं। इन्हें गाय के उपलों की आग में पकाया जाता है। फिर ठंडा कर पीसते और छानते हैं। इस पाउडर को गाय के कच्चे दूध और चंदन में मिलाकर दोबारा पकाया जाता है। इससे बनी भस्म नागा लगाते हैं।भस्म लगाने के बाद किसी ने गर्दन में चंदन का लेप लगाया तो किसी ने सुरमा। गेंदे के फूलों की माला, गले और जटाओं में बांध तैयार हुए। यही इस दिन का खास श्रृंगार था।