-दीपक रंजन दास
जगन्नाथ अर्थात जगत के नाथ। सकल जीव-जंतुओं के पालनहार। जगन्नाथजी के विशाल नयन यही संकेत देते हैं कि उनकी नजरों से कुछ भी छिपा हुआ नहीं है। कुछ बातों की चर्चा आज यहां कर रहा हूँ। जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा की प्रतिमाएं अपूर्ण हैं। अन्यान्य पुरातन मंदिरों की प्रस्तर प्रतिमाओं से अलग यहां की प्रतिमाएं काष्ठ की बनी हुई हैं। काष्ठ की प्रतिमाएं समय के साथ नष्ट हो जाती हैं इसलिए इन विग्रहों को प्रत्येक 12 वर्ष में बदले जाने की परम्परा है। यही बात नश्वर संसार के समस्त प्राणियों पर लागू होती है। सभी को अपनी आयु पूरी करने के बाद नया शरीर धारण करने के लिए पुराने शरीर को छोडऩा पड़ता है। यही नवकलेवर है। विग्रह अपूर्ण हैं। यह इस बात का भी द्योतक है कि विश्व में कोई भी वस्तु पूर्ण नहीं है इसीलिए सभी को सहज रूप से स्वीकार करना चाहिए। किसी की शारीरिक कमी को नजरअंदाज कर देना चाहिए। उसके गुणों पर ही ध्यान केन्द्रित करना चाहिए। यह मंदिर शासक को भी एक कड़ा संदेश देता है। जगन्नाथ मंदिर की भोजशाला में प्रतिदिन लगभग 20 हजार भक्तों के लिए भोजन तैयार होता है। यह भोग मिट्टी के बरतनों में लकड़ी की आंच पर पकाया जाता है। इसके लिए सात घड़ों को एक के ऊपर एक रखा जाता है। ऐसे सात-सात घड़ों की कई कतारें होती हैं। घड़े ऊपर की ओर क्रमश: छोटे होते जाते हैं। ऐसा करना संतुलन बनाए रखने के लिए तो जरूरी है ही पर इसका एक पक्ष और है। इसमें सबसे पहले सबसे ऊपर के घड़े का भोजन पक जाता है। सबसे पहले उसी को उतारना होता है। नीचे के महा-घड़ों का क्रम सबसे अंत में आता है। अर्थात गृहस्थी में परिवार के मुखिया को और शासन में राजा को सबसे अंत में भोजन करना चाहिए। अर्थात उसकी अपनी सुख-सुविधा का क्रम सबकी जरूरतें पूरी करने के बाद आता है। यही शासन की सर्वोच्च नीति है जिसका संदेश भगवान जगन्नाथ देते हैं। राजनीति में अकसर सीमांत किसान, समाज के सबसे निचले पायदान पर खड़े आदमी, जातिगत व्यवस्था में सर्वाधिक तिरस्कृत वर्ग, आदि की चर्चा होती है। पर होता उलट है। राजा खुद ही सज-धज कर दुनिया को यह संदेश देने की कोशिश करता है कि उसके यहां सबकुछ ठीक है। दिखावे का यह चलन जगन्नाथ संस्कृति के विरुद्ध है। भगवान जगन्नाथ की अपूर्ण प्रतिमा, साल के एक निश्चित समय में उनका बीमार पडऩा, काढ़ा पीकर स्वस्थ होना और फिर घर से बाहर निकलना उन्हें मनुष्यता से जोड़ता है। उनके विशाल रथ को कोई सात या इक्कीस घोड़े नहीं बल्कि असंख्य भक्त खींचते हैं। इस रथ यात्रा के लिए राजा स्वयं झाड़ू लगाते हैं। रथ यात्रा के दौरान भक्त प्रभु को अपशब्द भी कहते हैं। पर प्रभु अविचलित रहते हैं। उनकी नजरों में प्रशंसा और तिरस्कार का समान स्थान है जिसे वे सहज भाव से स्वीकार करते हैं। काश! मनुष्य भी ऐसा कर पाता।
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