-दीपक रंजन दास
कर चले हम फिदा जान-ओ-तन साथियों, अब तुम्हारे हवाले वतन साथियों… कैफी आजमी की इस रचना को मोहम्मद रफी ने अपनी आवाज देकर अमर कर दिया. फिल्म हकीकत के लिए बनाए गए इस गीत को आज भी स्वतंत्रता दिवस एवं गणतंत्र दिवस पर बजाया और गाया जाता है. अपने वतन की सुरक्षा के लिए अपने प्राणों का बलिदान करने वाले वीर सपूतों ने अवाम के नाम यह संदेश छोड़ा था. उनके दिल में संभवतः यही इच्छा थी कि अब ऐसा कुछ भी नहीं करना जिससे देशप्रेम की भावना आहत होती हो, ऐसा कुछ भी नहीं करना जिससे राष्ट्र कमजोर होता हो. देशप्रेम से ओतप्रोत विभिन्न गीतों में 60 से 70 के दशक के गीतकारों, गायकों और फिल्मकारों की भावनाएं प्रतिबिंबित होती रही है. पर इधर कुछ दिनों से देश की आबादी का बंटवारा हो रहा है. नतीजा सामने है. धर्म के नाम पर लोग घेर कर हत्याएं कर रहे हैं. मरने और मारने वालों में हिन्दू, मुस्लिम, सिख, इसाई सभी शामिल हैं. अब तो हालत यह है कि शांति, प्रेम और भाईचारा का संदेश देने वाले भी उग्र आंदोलन करने लगे हैं. लाख टके का सवाल केवल एक है – घर में अशांति और फूट डालकर राष्ट्र को मजबूत कैसे किया जा सकता है? रामायणकाल में भी हमने देखा कि त्रिलोकविजयी रावण के घर में फूट पड़ी और सोने की लंका स्वाहा हो गई. कहीं गाय के नाम पर, कहीं धर्म परिवर्तन के नाम पर तो कभी हत्यारे की कौम को सजा देने के नाम पर देश में कत्लेआम हो रहा है. पुलिस को भी समझ में नहीं आ रहा है कि वह आखिर करे तो क्या करे. अदालतें तो आदेश देकर खामोश हो जाएंगी. नेता आदेश तो दें पर कब पल्टी मार जाएं, इसका भरोसा नहीं. जमीन पर लड़ाई तो पुलिस को लड़नी है. मवेशी तस्करी के आरोपियों को पुलिस ने गिरफ्तार किया तो उन्हें छुड़वाने के लिए हजारों की संख्या में साधु-संत और धार्मिक संगठनों ने थाने का घेराव कर दिया. पुलिस केवल आरोपियों को गिरफ्तार कर सकती है, उनसे पूछताछ कर सकती है, उनके खिलाफ मामले लगा सकती है. आरोपी को दोषी ठहराना या रिहा कर देना, उसे कोई सजा देना अदालतों का क्षेत्राधिकार है. तो क्या हम मान लें कि अब अदालतों पर भी लोगों का भरोसा नहीं रहा? अब वे संख्या बल से शासन को डरा-धमकाकर अपनी बात मनवाना चाहते हैं. ऐसे में तो “जिसकी लाठी, उसकी भैंस” वाली कहावत ही चरितार्थ हो जाएगी. देश का शासन प्रशासन धरा का धरा रह जाएगा. शासन प्रशासन यदि गरीब, निहत्था, अल्पसंख्यक और कमजोर की सुरक्षा नहीं कर सकता तो फिर उसके होने या नहीं होने का कोई अर्थ नहीं रह जाता. कौन सा काम सही है और कौन सा नहीं, यदि इसका फैसला भी भीड़ को ही करना है तो अदालतों और पुलिस स्थापना पर इतने पैसे बर्बाद करने की जरूरत ही क्या है? सरकार भी क्यों चाहिए?
The post Gustakhi Maaf: अब तुम्हारे हवाले वतन साथियों appeared first on ShreeKanchanpath.