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टूटा ‘क्लाउड कनेक्शन’, IIT कानपुर का प्रयोग फेल, जान‍िए- क्या बेकार में करोड़ों खर्च कर बैठी दिल्ली सरकार

दिल्ली की जहरीली हवा को साफ करने के लिए सरकार ने IIT कानपुर के साथ मिलकर अब तक तीन बार ‘क्लाउड सीडिंग’ यानी कृत्रिम बारिश का प्रयोग किया है. लेकिन तीनों बार दिल्ली में एक बूंद भी बरसात नहीं हुई. अब सवाल उठ रहा है कि क्या कुछ मिनट की फुहार के लिए करोड़ों रुपये उड़ाना वाकई समझदारी है?

क्या है क्लाउड सीडिंग और कितना खर्च हुआ

IIT कानपुर के डायरेक्टर मनिंदर अग्रवाल के मुताबिक 28 अक्टूबर को हुए दो ट्रायल करीब 300 वर्ग किलोमीटर इलाके में किए गए थे. इनकी कुल लागत करीब 60 लाख रुपये रही यानी करीब 20,000 रुपये प्रति वर्ग किलोमीटर

 

सरकार ने सर्दियों में पांच ट्रायल के लिए 3.21 करोड़ रुपये का बजट तय किया था. लेकिन पर्यावरण मंत्री मनजिंदर सिंह सिरसा ने कहा कि इस बजट से 9 ट्रायल तक कराए जा सकते हैं. अगर प्रति ट्रायल औसतन लागत निकाली जाए तो एक ट्रायल पर करीब 35.67 लाख रुपये खर्च हो रहे हैं. यानी अब तक हुए तीन ट्रायल पर सरकार 1.07 करोड़ रुपये खर्च कर चुकी है और बारिश की एक बूंद भी नहीं गिरी.

इतना महंगा क्यों है ये प्रयोग?

IIT कानपुर के डायरेक्टर का कहना है कि फिलहाल हर ट्रायल का खर्च थोड़ा ज़्यादा है क्योंकि इसमें विमान की मेंटेनेंस, पायलट फीस और कानपुर से दिल्ली तक के 400 किलोमीटर फ्लाइट खर्च शामिल हैं. उनका कहना है कि अगर विमान दिल्ली में ही बेस्ड हों और प्रयोग पूरे सर्दी के मौसम में किए जाएं तो खर्च 25 से 30 करोड़ रुपये तक आ सकता है. उनके मुताबिक ये रकम दिल्ली के कुल 300 करोड़ रुपये के  प्रदूषण नियंत्रण बजट के मुकाबले बहुत बड़ी नहीं है. लेकिन एक अस्थायी और कम प्रभावी उपाय के लिए ये खर्चा ‘काफी ज्यादा’ माना जा रहा है.

इसके अलावा क्लाउड सीडिंग के लिए विमान में खास तकनीकी बदलाव जैसे फ्लेयर रैक, सिल्वर आयोडाइड मिक्स्चर, सेंसर, रेडियोसॉन्ड बलून, रडार सिस्टम आदि करने पड़ते हैं. इन सबकी कीमत करीब 5.3 करोड़ रुपये बताई गई है. इसके अलावा पायलट और क्रू की फीस, इंश्योरेंस और दूसरी तैयारियों का खर्च अलग से है.

क्या कमजोर था वैज्ञानिक आधार? 

क्लाउड सीडिंग की सबसे बड़ी समस्या ये है कि इसका सफलता दर बहुत कम है और वैज्ञानिक तौर पर इसका असर साफ नहीं दिखता. सबसे बड़ी मुश्किल ये भी है कि जब बारिश होती है तो ये तय करना मुश्किल होता है कि वो प्राकृतिक है या कृत्रिम.

दिल्ली के केस में भी ऐसा ही हुआ, प्रयोग नाकाम रहा क्योंकि उस वक्त बादलों में नमी बहुत कम थी. मंगलवार को जब ट्रायल किया गया तब बादलों में सिर्फ 10-15% नमी थी, जबकि बारिश कराने के लिए कम से कम 50-60% ह्यूमिडिटी जरूरी होती है. सर्दियों में दिल्ली का मौसम आमतौर पर बहुत सूखा रहता है इसलिए इस मौसम में क्लाउड सीडिंग लगभग नामुमकिन है.

दिल्ली में इससे पहले क्लाउड सीडिंग के प्रयोग 1957 और 1972 में किए गए थे लेकिन तब मकसद सूखे से राहत था. इस बार पहली बार इसे प्रदूषण कम करने के लिए आजमाया गया.

दूसरे राज्यों का अनुभव भी खराब रहा

आंध्र प्रदेश ने 2004 से 2009 के बीच सूखा कम करने के लिए क्लाउड सीडिंग के कई प्रयोग किए लेकिन वहां भी नतीजे संतोषजनक नहीं रहे. उन छह सालों में राज्य ने इस पर 119 करोड़ रुपये खर्च किए और बारिश बहुत कम हुई.

‘शॉर्टकट’ नहीं ‘लॉन्ग-टर्म सॉल्यूशन’ की जरूरत

कई  पर्यावरण विशेषज्ञों ने दिल्ली सरकार की आलोचना की है कि वो असली समाधान पर काम करने की बजाय ऐसे ‘शॉर्टकट’ प्रयोगों पर पैसा खर्च कर रही है. पर्यावरणविद् विमलेंदु झा ने कहा कि ये बहुत महंगा उपाय यानी करीब 1 लाख रुपये प्रति वर्ग किलोमीटर है. अगर पूरी दिल्ली (1500 वर्ग किमी) में किया जाए तो हर बार करीब 15 करोड़ रुपये लगेंगे और इसका असर सिर्फ एक-दो दिन तक रहता है. फिर भी ये तमाशा जारी है.

गृह मंत्रालय के पूर्व सचिव संजय गुप्ता ने भी कहा कि वैज्ञानिक प्रक्रिया को राजनीतिक फैसलों से ऊपर रखा जाना चाहिए. ये उपाय महंगा है और इसका असर बहुत सीमित है. 

क्या है दिल्ली की हवा के लिए असली उपाय?

विशेषज्ञों का कहना है कि दिल्ली में प्रदूषण की समस्या बहुत जटिल है जिसमें पराली जलना, धूल, ट्रैफिक, औद्योगिक धुआं और मौसम की स्थिति सब शामिल हैं. ऐसे में क्लाउड सीडिंग जैसे प्रयोग सिर्फ महंगे जुए की तरह हैं, जिनका असर दिखता नहीं और खर्च भारी पड़ता है 

Manoj Mishra

Editor in Chief

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