-दीपक रंजन दास
राधेलाल को जनरल बोगी में यात्रा करना पसंद था। इसकी एक खास वजह भी थी। एक दूसरे से सटकर बैठे लोग थोड़ी ही देर में मित्र बन जाते थे। बातों-बातों में सफर गुजर जाता था। यात्रा के दौरान एसी, कंबल और तकिया की जरूरत कभी महसूस नहीं हुई। भांति-भांति के लोग मिलते थे। दूर-दराज के स्थानों की मौलिक जानकारी मिल जाती थी। अलग-अलग प्रांतों के तीज-त्यौहार, पहनाना-ओढ़ावा और खान-पान से परिचय हो जाता था। राधेलाल का एक खास शौक था जो उसे सहयात्रियों के बीच लोकप्रिय बनाता था। उसे हाथ देखना आता था। वैसे उसका ज्ञान कितना पुख्ता था, कहना मुश्किल है। जिन सहयात्रियों का वह हाथ देखता था, वो थोड़ी ही देर में बिछुडऩे वाले होते थे। भविष्यवाणी सच हुई या नहीं, इसका पता लगाने की कभी नौबत नहीं आई। ऐसा ही बाबाओं के साथ भी होता है। प्रतिदिन सैकड़ों की संख्या में श्रद्धालु आते हैं। बाबा सभी को आशीर्वाद देते हैं। महीने में चार-छह को भी आशीर्वाद फल गया तो धंधा चल पड़ता है। जिसे आशीर्वाद का लाभ होता है वह फिर-फिर लौट कर आता है। धीरे-धीरे भीड़ में ऐसे लोगों की संख्या बढ़ती चली जाती है जिन्हें बाबा के आशीर्वाद का सुफल मिला हो। बाबा हिट हो जाते हैं, मामला फिट हो जाता है। राधेलाल बताता कि हाथ की रेखाओं में जीवन रेखा और संतान सुख के अलावा उसे कुछ चिन्हों की पहचान थी। इन्हीं में से एक चिन्ह था मंदिर का। जिनके हाथ में यह चिन्ह होता है वे धर्म के रास्ते पर चलते हैं, मंदिर बनवाते हैं। इन्हीं मंदिरों से फिर उसे आय भी होती है और गृहस्थी की गाड़ी भली-प्रकार चल पड़ती है। हथेली पर मंदिर का रेखा चित्र एक चौकोर होता है जिसके ऊपर एक त्रिभुजाकार छत होती है। किसी-किसी की हथेली पर इसके ऊपर एक झंडा भी बना होता है। यदि ऐसे लोग मंदिर बनवाते हैं तो अच्छा-खासा जनसहयोग मिलता है। मंदिर के साथ ही अपना घर और आय का जरिया भी बन जाता है। यही राधेश्याम एक दिन फटे हाल मिला। पूछने पर बताया कि कालोनी की राशन की दुकान अब चलती नहीं। कालोनी से सटकर एक मॉल और दो-दो मार्ट खुल गए हैं। लोग राशन से लेकर बालों में लगाया जाने वाला क्लचर तक वहीं से खरीद लाते हैं। दुकान में ग्राहकी कम हुई तो उसने रियल एस्टेट का काम शुरू किया। पर इस धंधे के मगरमच्छ जल्द ही उसे निगल गए। कालोनी के कोने में थोड़ी सी जमीन खाली पड़ी थी। अब उसपर मंदिर बनवा रहा है। कालोनी वालों से चंदा लिया, फिर ठेकेदारों से ईंट, रेत, गिट्टी का सहयोग ले लिया। सीमेंट और सरिया देने वाला कोई मिल जाए तो मंदिर का काम शुरू हो जाएगा। उसे लगता है कि आजादी के बाद की सरकारों ने यदि कल-कारखानों, शिक्षण संस्थानों, बांध परियोजनाओं की बजाय मंदिरों पर फोकस किया होता तो आज उनकी ऐसी दुर्दशा नहीं होती।
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