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Gustakhi Maaf: चलो मानवता की बात करें

-दीपक रंजन दास
सद्यप्रसूता बिलासा अपने 10 दिन के शिशु को गोद में लिये आठ गुणा दस के कमरे में बैठी है। आज सुबह से बिजली नहीं है। बाहर का पारा 46 डिग्री के पार है। एक-दो ईंट की सीमेन्ट गारे की दीवारें और छह इंची की कंक्रीट की छत के बीच वह ऐसे फंसी है जैसे तंदूर में चिकन। बच्चा रोते-रोते निढाल हो गया है। क्या पता बेहोश ही हो गया हो। पर अब बिलासा में इतनी हिम्मत नहीं है कि वह कुछ सोच सके। वह भी निढाल सी पड़ी है। बिलासा का बाबू थका-हारा शाम को लौटता है तो पत्नी और बच्चे की यह हालत उससे देखी नहीं जाती। पास ही विद्युत मण्डल का दफ्तर है। वह मोहल्ले वालों को इक_ा करता है और वहां जाकर हंगामा खड़ा कर देता है। लोहे के पुलिस बेरिकेड को खींच कर भीड़ रास्ता बंद कर देती है। दोनों तरफ गाडिय़ों की कतारें लग जाती हैं। फिर पुलिस आती है और चार डंडे मारकर हंगामा करने वालों को तितर-बितर कर देती है। स्थिति हमेशा से ऐसी नहीं थी। अधिकांश गरीब कई पीढिय़ों से गरीब होते हैं। अब तक मिट्टी की दीवारें और खपरैल की छतें गर्मियों से राहत देती आई हैं। पर जब पक्के मकान का प्रस्ताव मिला तो वो खुद को रोक नहीं पाए। झोंपड़ी गई और पक्का मकान बन गया। खुशी हुई कि अब बारिश में छत नहीं टपकेगी। कीड़े मकोड़े भी कम होंगे। पर किसे पता था कि बिना बिजली के इन कबूतरखानों में गर्मियां नहीं काटी जा सकतीं। मौसम की गर्मी तो अपनी जगह है, खुद मानव इस आग में और घी डालता है। आसपास की कालोनियों के सैकड़ों मकानों में एसी लगा है। एसी न केवल बिजली की डिमांड को बढ़ाता है बल्कि परिवेश का तापमान भी बढ़ा देता है। जब बिजली जाती है तो पास के अस्पतालों, होटलों और रेस्तराओं के भारी भरकम डीजल जनरेटर शुरू हो जाते हैं। तापमान और बढ़ जाता है। आज सड़क पर दौड़ते 99 प्रतिशत निजी वाहन एसी वाले हैं। 10 मिनट के लिए रास्ता रोक दो तो 200 कारें खड़ी हो जाती हैं। यह एक ऐसी लड़ाई है जिसमें गरीब लगातार हार रहा है। अनेक पशु पक्षी यह लड़ाई हार चुके हैं। बढ़ती गर्मी और प्रदूषण के कारण वो या तो शहर छोड़ कर चले गए हैं या फिर इस दुनिया को ही अलविदा कह चुके हैं। अब खुद इंसान की बारी है। स्वच्छ और अक्षय ऊर्जा स्रोतों की बातें सुनते कई दशक बीत गए पर आज भी अधिकांश बिजली ताप विद्युत घरों से ही आती है। वहां कोयला जलाया जाता है। कोयला निकालने के लिए जंगल नष्ट करने पड़ते हैं। जब से कोयला खदान निजी हाथों को गये हैं, कोयला निकाले जाने की रफ्तार कई गुना बढ़ गई है। वह पर्यावरण और मृदा संरक्षण नियमों की भी परवाह नहीं करता। क्या सौर-ऊर्जा के दोहन की रफ्तार को तेज नहीं किया जा सकता?

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