-दीपक रंजन दास
मुजरा के शाब्दिक अर्थ पर न जाएं तो यह रईसों के मनोरंजन का साधन है। 77 साल के भारतीय लोकतंत्र की सबसे बड़ी उपलब्धि यही है कि अब नेता काम की बातें कम और मन की बातें ज्यादा करते हैं। चतुर सुजान लोग इसमें फिकरेबाजी करते हैं और शेष सभी मंदबुद्धि नेता इसके जाल में उलझ जाते हैं। वो भी काम की बात छोड़कर फालतू की बातों में लग जाते हैं। लोकतंत्र आठ-आठ आंसू रोता है। देखा जाए तो चुनावी दौर में सभी दलों के नेता मुजरा कर रहे हैं। वो जनता को रिझाने की कोशिश कर रहे हैं। भोली-भाली जनता झलक देख-देख कर पागल हो रही है। उस बेचारे को क्या पता कि इस मुजरे में उसकी भूमिका केवल दर्शक की है। दरअसल, इसकी शुरुआत खुद भाजपा ने की है। उसके आईटी सेल ने राहुल गांधी का खूब मजाक उड़ाया है। राहुल की हर बात को तोड़-मरोड़कर पेश कर भाजपा ने लोगों का भरपूर मनोरंजन किया है। ऐसा इतनी बार किया गया है कि लोगों को अब केवल मजाक ही याद रह गया है। अब यही तीर भाला बनकर भाजपा की तरफ लौटने लगी है। उसके एक-एक नेता के बयान पर कांग्रेस समेत दीगर विपक्षी दलों के आईटी सेल घात लगाए बैठे हैं। ऐसे में चतुर नेता नाप-तौल कर बोल रहे हैं। जान बूझकर वो ऐसे बोल बोल रहे हैं जिसपर प्रतिक्रिया किये बिना विपक्ष रह ही नहीं सकता। इस चक्कर में वह काम की बात भूल जाता है। वो भूल जाते हैं कि लोकतंत्र में विपक्ष का काम केवल सत्ता की बातों को काटना नहीं है। लोकतंत्र तभी ताकतवर हो सकता है जब विपक्ष जनता के मुद्दों को लेकर ठोस काम करे। इससे सत्ता पर काम का दबाव बना रहता है। छत्तीसगढ़ में लोकसभा के लिए मतदान हो चुके हैं। विधानसभा के चुनाव भी पिछले साल ही निपट चुके थे। अब यहां चुनावी बयानबाजी का कोई अर्थ नहीं। हार-जीत की अटकलबाजी में रस लेने वालों को भी यह समझना होगा कि जो भी होना है वह 4 जून को सबके सामने होगा। कांग्रेस पर यहां विपक्ष की बड़ी जिम्मेदारी है। कांग्रेस को यह समझना होगा कि चुनाव के बाद एक दल सत्तारूढ़ होकर शासक बन जाता है। इससे पाराजित दल स्वयमेव जनता के साथ खड़ा हो जाता है। जनता के साथ खड़ा होने का एक अर्थ सड़क की राजनीति करना भी है। थोड़े ही दिनों में नया शिक्षण सत्र शुरू होने वाला है। एक आदेश है कि इसी सत्र से नई शिक्षा नीति को लागू किया जाना है। इसी आदेश का एक हिस्सा कहता है कि यूजी में चार वर्षीय पाठ्यक्रम भी इसी सत्र से शुरू हो जाएंगे। इसकी कितनी तैयारी हुई, छात्रों के भविष्य और शिक्षा के खर्च पर कैसा और कितना प्रभाव पड़ेगा इसपर खुलकर चर्चा होनी चाहिए। इससे छात्र-संगठनों को एक्टिवेट करने का भी मौका मिलेगा। युवा वोटर राजनीति को करीब से समझ पाएंगे।
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