-दीपक रंजन दास
आप नर और नारी तभी तक हैं जब तक आप समाज के बनाए उन नियमों को मानते हैं जिसमें दोनों की भूमिका अलग-अलग थी। प्रतिस्पर्धा के धरातल पर यह स्पेशल स्टैटस अपने-आप खत्म हो जाता है। महाभारत के युद्ध में बालक अभिमन्यु ने भी हिस्सा लिया था। उन्हें सिर्फ योद्धा ही माना गया। महारथियों ने घेर कर उसका वध कर दिया। किसी ने भी उन्हें बच्चा समझकर छोड़ नहीं दिया। आज कई देशों की सेना में महिलाएं हैं। वे खतरनाक फाइटर प्लेन उड़ाती हैं। तो क्या दुश्मन केवल इसलिए उनपर राकेट या मिसाइल हमला नहीं करेगा कि उसे महिला उड़ा रही है। जवान पुलिस का हो, अर्धसैनिक बल का हो या नक्सलवादी, गोलियां कोई भेदभाव नहीं करतीं। एक ही परीक्षा की तैयारी कर रहे दो विद्यार्थियों में छात्र-छात्रा का कोई भेद नहीं होता। मुकाबला बराबरी का होता है। यही बात राजनीति पर भी लागू होती है। इंदिरा, सोनिया, ममता, मायावती, आदि ऐसे सैकड़ों उदाहरण हैं जिन्हें तरह-तरह के आरोपों से बार-बार जख्मी किया गया। किसी ने भी कभी महिला होने की आड़ नहीं ली। कभी स्पेशल प्रोटेक्शन की मांग नहीं की। कभी यह नहीं कहा कि एक महिला के खिलाफ आप इस तरह की बातें नहीं कर सकते। एक बार आप इस अखाड़े में उतरे तो आपको इन सभी बातों के लिए तैयार रहना चाहिए जो किसी भी नेता पर लागू होती हैं। आरोप लगाने वाले यह नहीं देखते कि नेता महिला है या पुरुष। ऐसे में कांग्रेस की राष्ट्रीय प्रवक्ता राधिका खेड़ा का रोना-गाना और भाजपा का इस घटना को महिला सम्मान से जोडऩा, दोनों ही समझ में नहीं आता। दोनों के अधिकार समान हैं। दरअसल, बयानबाजी को ही देश में राजनीति समझ लिया गया है। प्रिंट मीडिया से लेकर विजुअल मीडिया तक का सारा वक्त इसी को कवर करने में खप जाता है। पार्टी की तरफ से बयानबाजी का यह अधिकार प्रवक्ता को भी दिया जाता है। उसके बयान को पार्टी का बयान माना जाता है इसलिए मीडिया भी उसे खूब तवज्जो देती है। इसके चलते कभी-कभी प्रवक्ता खुद को ही नेता समझने लगते हैं। सारी गड़बड़ी यहीं से शुरू होती है। नेता बने ये प्रवक्ता एक दूसरे के कार्यक्षेत्र में दखलअंदाजी करना शुरू कर देते हैं और फिर उनके बीच इगो की लड़ाई शुरू हो जाती है। इगो की इस लड़ाई का लोग मजा लेते हैं। बात मजा लेने तक ही सीमित रहे तो कोई बात नहीं, पर इसे लेकर आंसुओं की लड़ाई शुरू हो जाए तो पुरुष बेचारा कहां जाए। उसे तो बचपन से सिखाया गया है कि मर्द को दर्द नहीं होता, मर्द रोते नहीं हैं। पुरुषों को ऐसी स्थिति से बचाने के लिए ही शायद उनका ऐसा चित्रण किया गया है जिसमें या वे ध्यानमग्न रहते हैं या फिर योगनिद्रा में लीन हो जाते हैं। वो इस बेकार की बहस में उलझना ही नहीं चाहते जिसमें उनकी हार निश्चित होती है।
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