धर्म

आदर्श व्यक्तित्व विकसित करने की आवश्यकता

*💐आदर्श व्यक्तित्व विकसित करने की आवश्यकता💐*

*🙏🏻संकलन:आचार्य आशीष गौरचरण मिश्र*

स्वभावदोषों के शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक, पारिवारिक, सामाजिक व आध्यात्मिक दुष्परिणामों को दूर कर, सफल व सुखी जीवन जीने हेतु, स्वभावदोषों को दूर कर चित्त पर गुणों का संस्कार निर्माण करने की प्रक्रिया को ‘स्वभावदोष (षड्रिपु)-निर्मूलन प्रक्रिया’ कहते हैं ।

*१. स्वभावदोषों के कारण होनेवाली आध्यात्मिक हानि : साधना व्यय (खर्च) होना*

स्वभावदोषों के कारण व्यक्ति का जीवन तनावग्रस्त बनता है । स्वभावदोषों के कारण शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक स्तर पर भी दुष्परिणाम होते हैं । शारीरिक स्तर पर क्या दुष्परिणाम होते हैं, वह समझ लेते हैं । मान लीजिए किसी का स्वभाव अतिचिंता करने का है, तो शरीर के अवयवों पर भी उसका दुष्परिणाम होता है और उससे आम्लपित्त, अल्सर, दमा, हृदयविकार, उच्च रक्तचाप जैसी बीमारियां उत्पन्न होती हैं । मानसिक स्तर पर क्या परिणाम होता है ?, तो स्वभावदोषों के कारण निराशा, एकाग्रता और आत्मविश्वास का अभाव, विस्मरण, मनोविदलता (स्किजोफ्रेनिया) जैसे विविध मानसिक रोग होते हैं । जितने स्वभावदोष अधिक, उतना हमारे मन पर तनाव अधिक । छोटी-छोटी घटनाओं के कारण भी व्यक्ति को मनस्ताप होता है । स्वभावदोषों से लडकर टिके रहने के लिए मन की शक्ति अथवा ऊर्जा भारी मात्रा में खर्च होती है । इसलिए उस व्यक्ति को तुरंत ही थकान अथवा निरुत्साह लगता है । मानसिक तनाव से बाहर निकलने के लिए कोई व्यक्ति सिगरेट, मद्य आदि व्यसनों का आधार लेता है; परंतु वैसे करने से मानसिक तनाव का निर्मूलन नहीं होता, इसके विपरीत समस्याएं और बढ जाती हैं । इसलिए व्यावहारिक जीवन में भी स्वभावदोषों का निर्मूलन काल की आवश्यकता बन गई है ।

स्वभावदोषों से आध्यात्मिक स्तर पर भी हानि होती है । किसी भी योगमार्ग से साधना करें, जब तक स्वभावदोष निर्मूलन और अहं-निर्मूलन कुछ मात्रा में साध्य नहीं होता, तब तक साधना में प्रगति करना अत्यंत कठिन होता है । उदा. ध्यानयोग से साधना करनेवाले ध्यान लगाने का कितना भी प्रयत्न करें, तब भी उनके दोषों के कारण उनके मन में असंख्य विचार आते रहेंगे, तो ठीक से ध्यान नहीं लगा सकेंगे । स्वभावदोषों के कारण होनेवाली अयोग्य कृतियों के कारण व्यक्ति की साधना खर्च होती है । इसलिए व्यक्ति की आध्यात्मिक उन्नति नहीं होती । उदाहरणार्थ, एक बार झूठ बोलने पर ३० माला जब व्यर्थ चला जाता है । इसलिए साधना करते समय नामजप करना जितना महत्त्वपूर्ण है, उतना ही स्वभावदोष निर्मूलन का प्रयत्न करना भी महत्त्वपूर्ण है । यदि किसी बर्तन में छिद्र हो, तो उसमें कितना भी जल डाले क्या वह बर्तन जल से पूरा भर सकेगा ? नहीं, छिद्र बंद करने पर ही बर्तन में जल रह सकता है । उसी प्रकार व्यक्ति में विद्यमान स्वभावदोषरूपी छिद्र बंद करने के उपरांत ही व्यक्ति के मनरूपी बर्तन में साधनारूपी जल रख सकते हैं ।

*२. खरा व्यक्तित्व विकास स्वभावदोष-निर्मूलन प्रक्रिया द्वारा ही संभव !*

आजकल व्यक्तित्व आदर्श बनाने के लिए अनेक जन विशेषरूप से युवा वर्ग बडी राशि शुल्क के रूप में देकर व्यक्तित्व विकास वर्ग personality development class अथवा शिविर में जाते हुए दिखाई देते हैं । अनेक बडे कंपनियों में भी आत्मविश्वास से और कार्यकुशलता से काम कर सके, इस हेतु व्यक्तित्व की त्रुटियों को दूर करने के लिए व्यक्तित्व विकास के अर्थात personality development के वर्ग लिए जाते हैं । soft skills के अंतर्गत सभ्यता के शिष्टाचार सिखाए जाते हैं; परंतु वहां मूल स्वभावदोषों पर प्रक्रिया न की जाने से वे मर्यादित समय और सतही होते हैं । दैनिक जीवन में अथवा कोई काम करते समय भाव-भावनाओं का उत्तम व्यवस्थापन कर पाना, इसके साथ ही परिस्थिति अच्छे ढंग से संभाल पाना महत्त्वपूर्ण होता है । उसके लिए नम्रता, निरपेक्षता, विवेक, निःस्वार्थता, कठिन प्रसंग का सामना करते समय सकारात्मक रहकर स्थिर चित्त से विवेकबुद्धि से निर्णय लेना इत्यादि बातों की आवश्यकता होती है । वह सहजता से होने के लिए समूल और आध्यात्मिक स्तर पर प्रयत्न करना महत्त्वपूर्ण है । साधना से जैसे-जैसे बुद्धि सात्त्विक होती जाती है, स्वभावदोषों की मात्रा घटती जाती है, वैसे-वैसे उस व्यक्ति का अपनेआप विकास होता जाता है । दूसरी भाषा में यदि कहना हो, तो ‘व्यक्तित्व विकास’ स्वभावदोष-निर्मूलन प्रक्रिया का ‘बाइ प्रॉडक्ट’ है । व्यक्ति के दोष दूर कर उसके चित्त पर गुणों का संस्कार निर्माण करने की प्रक्रिया को ‘स्वभावदोष-निर्मूलन प्रक्रिया’ कहते हैं । शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक स्तर पर लाभदायक यह प्रक्रिया सीखकऱ सभी का जीवन आनंदमय बने, यही ईश्वर चरणों में प्रार्थना करते हैं ।

*३. राष्ट्र की दुर्दशा पर उपायस्वरूप सुसंस्कारित समाजमन की आवश्यकता*

व्यक्ति व समाज का स्वास्थ्य एक-दूसरे पर निर्भर करता है । वर्तमान समाजव्यवस्था में अनेक दुर्गुणों का अनुभव हमें दैनिक जीवन में पग-पग पर होता है । राजनेता, जनता, कर्मचारी व धार्मिक नेता, इन चार महत्त्वपूर्ण मूलभूत समाजघटकों में स्वभावदोष बढने के कारण केवल राजनीतिक क्षेत्र ही नहीं; अपितु सामाजिक, आर्थिक, शैक्षिक आदि सभी क्षेत्र कम-अधिक मात्रा में मलिन हुए हैं । समस्त राष्ट्रवासियों को हुआ धर्म व नीति का विस्मरण तथा उनके घोर अनादर के कारण ही राष्ट्र की दुर्दशा हुई है । संपूर्ण समाजव्यवस्था सुव्यवस्थित करने के लिए अपने दुर्गुणों का निर्मूलन व गुणों का संवर्धन करना, यह समाज के प्रत्येक घटक का प्रथम कर्तव्य है ।

Manoj Mishra

Editor in Chief

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button