-दीपक रंजन दास
पांचवी में पढ़ने वाली स्नेहा ने स्कूल से लौटते ही जिद पकड़ ली कि उसे संस्कार चाहिए. उसके स्कूल में कोई नेता जी आए थे. उन्होंने संस्कारों पर लंबा चौड़ा भाषण देने के बाद कहा कि माता-पिता अपने बच्चे को एक रोटी भले ही कम दें, पर उन्हें संस्कार अवश्य दें. बस स्नेहा ने बात पकड़ ली. घर लौटते ही मां का आंचल थाम लिया और संस्कार मांगने लगी. पहले तो मां ने टालने की कोशिश की पर जब उसने संस्कार की रट लगा ली तो खीझ कर उसे एक तमाचा जड़ दिया. स्नेहा को यकीन हो गया कि संस्कार कोई बहुत कीमती और महंगी चीज है जो माता-पिता अपने बच्चों को देना नहीं चाहते. वहीं मां ने खीझ में थप्पड़ मार तो दिया पर उसका दिल पसीज किया. थोड़ी देर में वह बेटी के पास पहुंची और उसे अपनी बाहों में कसकर उसका माथा चूम लिया. बिना कुछ कहे ही वह बच्ची को काफी देर तक अपनी बाहों में कसकर भींचे रही. संस्कारों के बारे में उसने सुना तो बहुत था. खुद भी कई बार इस शब्द का जाने-अनजाने में इस्तेमाल किया था. पर उसे भी नहीं पता कि संस्कार लिये और दिये कैसे जाते हैं. इसलिए जब मध्यप्रदेश के मंत्री कैलाश विजयवर्गीय ने कहा कि बच्चों को पढ़ाना-लिखाना अच्छी बात है, पर संस्कार देना भी जरूरी है तो लोग कंफ्यूज हो गए. उन्हें तो लगा था कि अपनी कमाई का सबसे बड़ा हिस्सा बच्चों की शिक्षा पर खर्च करने के बाद संस्कार लेने-देने के चक्कर से वो मुक्त हो गए थे. अच्छा स्कूल मतलब अच्छे संस्कार. अच्छे संस्कार आपको यह सिखाते हैं कि कैसे दूसरों को पीछे धकेलकर उनसे आगे निकला जाता है. कैसे बोझ बन चुके रिश्तों को ठिकाने लगाकर अपनी तरक्की की राह प्रशस्त की जाती है. यही अच्छे संस्कार आपको सिखाते हैं कि अगर तरक्की करना चाहते हो, समाज में अपना रसूख बनाना चाहते हो तो हमेशा अपने से ऊंचे स्तर के लोगों के साथ उठना बैठना करो. एक वाकया याद आता है, इसी भिलाई शहर का. दुर्गा विसर्जन का दिन था. ट्रैफिक जाम लगा हुआ था. इसी भीड़ में एक कार भी फंसी हुई थी. कार के बाहर कुछ मांगने वाले बच्चे शीशा ठकठकार भीख मांग रहे थे. शीशा उतारकर चालक-मालिक ने बच्चे को फटकार दिया. बच्चा पीछे वाली खिड़की तक पहुंचा तो वहां बैठे बच्चे ने धीरे से शीशा उतारा और अपने हाथ का क्रीम-बन बच्चे को दे दिया और शीशा ऊपर कर लिया. दरअसल, अच्छे संस्कार बच्चे का स्वाभाविक गुण है. इसके बाद वह परिवेश से सीखता है. कुछ बातें माता-पिता से सीखता है तो कुछ बातें अपने शिक्षकों और सहपाठियों से. फिर दायरा बढ़ता है तो उन लोगों से भी सीखता है जिनके सम्पर्क में आता है. हमारे यहां तो हर शहर की अपनी एक गाली तकिया-कलाम जैसी होती है. नशा भी ऐसा ही है. हर शहर का अपना अपना.
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