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Gustakhi Maaf: गऊ माता की शहादत

-दीपक रंजन दास
शहीदों को लेकर देश हमेशा भावुक और संवेदनशील रहा है। उनकी मूर्तियां बनती रही हैं। इंसानों के साथ-साथ कुछ चतुष्पदों को भी यह दर्जा दिया जा चुका है। अब इसमें एक नाम और जुड़ गया है गऊमाता का। जो काम इन निरीह पशुओं से जीते-जी नहीं हो सका, उसे शायद अब एक गऊमाता की शहादत से गति मिले। गऊ और इंसानों का रिश्ता सदियों पुराना है। इस बहु-उपयोगी मवेशी को हिन्दू समाज ने माता की संज्ञा दी। दूध के अलावा गोबर और गौमूत्र तक के लाभ आयुर्वेद में बताए गए हैं। आधुनिक विज्ञान भी इसकी पुष्टि करता है। गाय और गौठान ग्रामीण अर्थव्यवस्था की धुरी हैं। गऊ माता की सुरक्षा के लिए कई तरह के संगठन देश भर में हैं। इनका मुख्य काम पशु तस्करों को पकडऩा, उनके साथ मारपीट करना और गौवंश को मुक्त कराना है। पर यह मुक्त गौवंश उसके बाद किस हाल में जीते हैं, इसकी फिक्र करने के लिए कोई आगे नहीं आता। देश में कुछ गौशालाएं हैं जहां लावारिस गौवंश की देखभाल का दावा किया जाता है। पर पिछले दशकों में ऐसी कई घटनाएं हुई हैं जहां गौशालाओं में देखभाल के अभाव में भूख-प्यास से तड़पकर बूढ़ी और कमजोर गायों ने अपने प्राणों की आहुति दे दी। खूब राजनीति हुई। पर इससे आगे कुछ न हो सका। आज भी गौवंश की देखभाल के नाम पर देशभर में केवल ट्रकों को पकडऩे और मॉब लिंचिंग करने की घटनाएं ही सुर्खियों में आ पाती हैं। अंबागढ़ चौकी क्षेत्र में एक गाय सड़क पर किसी वाहन की टक्कर से घायल हो गई। घायल गाय को देखकर स्थानीय निवासी रचना खंडेलवाल ने नगर पंचायत अध्यक्ष को दी। उन्होंने स्वच्छता कर्मियों को भेजकर घायल गाय को पशु चिकित्सालय भिजवाया। वहां भी गाय पांच दिन तक उसी तरह घायल और भूखी प्यासी पड़ी रही। इसके बाद उसने अपने प्राण त्याग दिये। अब इसपर हंगामा शुरू हो गया है। तमाम गौभक्त और गौसेवक इस मामले को लेकर हंगामा कर रहे हैं। फिर से वही नगर पंचायत और फिर वही स्वच्छता कर्मी। किसी तरह गाय का पूरे सम्मान के साथ अंतिम संस्कार कर दिया गया। अंबागढ़ चौकी क्षेत्र की यह गाय केवल सड़क पर हादसे का शिकार हुई थी। पर इसके बाद जो कुछ भी हुआ वह समाज की बेहिसी का प्रमाण है। लोगों को अपने लिये ही कम पड़ रहा है तो वह गायों पर कहां से खर्च करे। इसी साल मार्च में भिलाई के मॉडल टाउन क्षेत्र में एक आवारा सांड ने एक वृद्ध को गंभीर रूप से घायल कर दिया। इलाज के दौरान वृद्ध की मृत्यु हो गई। इसके बाद आवारा मवेशियों की धरपकड़ भी हुई पर थोड़े ही दिनों में सभी बाइज्जत बरी होकर सड़कों पर लौट आए। कभी गौवंश इंसानों के हाथों तो कभी इंसान आवारा मवेशियों के हाथों काल-कवलित हो रहे हैं। फिर भी आवारा मवेशियों को लेकर कोई ठोस रणनीति नहीं बन पा रही है। आखिर क्यों?

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Manoj Mishra

Editor in Chief

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