-दीपक रंजन दास
जब से देश स्वास्थ्य एवं स्वच्छता को लेकर मिशन मोड पर आया है, तभी से शौचालय एक अंतहीन कथा बनी हुई है। सरकार ने घर-घर शौचालय योजना शुरू की। इसके लिए रकम भी उपलब्ध कराई। कई एजेंसियां कुकुरमुत्ते की तरह उग आईं। अधिकांश मकानों में जगह की दिक्कत थी तो कहीं-कहीं पानी की उपलब्धता का बड़ा सवाल भी था। समस्याएं स्थानीय स्तर की थी जिनका जवाब भी ढूंढा गया और मिशन आगे बढ़ता गया। आज लगभग पूरे देश में पारिवारिक शौचालय हैं और उनका उपयोग भी हो रहा है। असली संकट तब उत्पन्न होता है जब लोग अपने घर से बाहर होते हैं। स्कूल, कॉलेज, बस स्टैंड, रेलवे स्टेशन, रेस्तरां, शॉपिंग मॉल, पर्यटन स्थल ऐसी ही जगहें हैं जहां लोग काफी वक्त बिताते हैं। इनमें से स्कूल वो जगहें हैं जहां प्रतिदिन 200 से लेकर 1000 तक बच्चे आते हैं और 5-6 घंटे का समय बिताते हैं। वे यहीं भोजन भी करते हैं। इसलिए हाथ धोने से लेकर शौचालय तक की व्यवस्था तो बनती ही है। एनएसएस के सिलसिले में कई गांवों में जाना हुआ। कहीं कहीं तो शौचालय की व्यवस्था बेहतरीन मिली पर ऐसे शौचालयों की भी कोई कमी नहीं थी जिसका उपयोग करने के लिए बच्चों को उचककर चबूतरे पर चढऩा पड़ता था। सीढिय़ां शायद नक्शे में ही नहीं थीं। ऐसे भी स्कूल मिले जहां पुराने शौचालय को इसलिए बंद कर दिया गया है कि नया शौचालय बन गया है। अब स्कूलों के शौचालय सुर्खियों में हैं। बताया जा रहा है कि इसमें 195 करोड़ रुपए का भ्रष्टाचार हुआ है। ऐसा नहीं हो सकता। कुछ न कुछ काम तो हुआ ही होगा। परसेंटेज प्रथा के चलते कुछ राशि की बंदरबांट हुई होगी, इससे इंकार नहीं है पर पूरी की पूरी रकम डकारी नहीं जा सकती। दरअसल, यह राशि दिव्यांग बच्चों के लिए विशेष टायलेट बनाने पर खर्च की गई थी। सर्वशिक्षा अभियान के तहत 2011 से अब तक प्रदेश भर में 38471 सीडब्लूएसएन टॉयलेट बनाए गए। यह राशि इसी पर खर्च की गई थी। इसमें से 90 प्रतिशत टायलेट अब उपयोग के लायक नहीं है। पाइप लाइन उखड़ चुके हैं। वाश बेसिन, ग्रैब रेल, दरवाजा गायब है। ये सब किसी न किसी के घर में लगे होंगे। तोडफ़ोड़ ऐसी हुई कि दीवारें तक गिर गईं। वैसे तो योजना बनाने वालों की भी पीठ ठोंकनी चाहिए। सार्वजनिक उपयोग के टायलेट में कमोड और वॉशबेसिन के पास हैंडरेल, पेवर टाइल्स, ब्रेल साइन, नल, फॉसेट-हैंड स्प्रे आदि की फिटिंग कराई गई थी। इन्हें तो चोरी होना ही था। एक शिक्षक ने बताया कि यदि टॉयलेट काम्पलेक्स प्रिंसिपल ऑफिस या स्टाफ रूम के पास बनाए जाते तो इनकी सुरक्षा हो सकती थी। पर इन्हें परिसर के दूसरे छोरों पर बनाया गया था जहां स्कूल बंद होते ही असामाजिक तत्व इकठ्ठा होते हैं। ये सभी साजो-सामान उनके नशा-पानी की भेंट चढ़ गए। बस स्टैंड, रेलवे स्टेशन, पर्यटन स्थलों की हालत भी जुदा नहीं है।
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