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Gustakhi Maaf: अगर आप देश के दिमाग हो

-दीपक रंजन दास
मनुष्यों के बीच फर्क का यह सिलसिला अकेले भारत तक सीमित नहीं है। इसके जड़ें भी बहुत गहरी हैं। पर अपने यहां पिछले कुछ दशकों से जाति और वर्ण के नाम पर स्वयं को श्रेष्ठ या नीचा समझने की एक नई लहर चल पड़ी है। वैसे तो पहले भी कथित नीची जाति के लोग ऊंची जाति वालों के घर में नहीं घुसते थे। उनके बराबर में बैठते तक नहीं थे। भले ही कुर्सियां खाली पड़ी हों, वो नीचे ही बैठते थे। ऊंची जाति के लोग ही यह तय करते रहे हैं कि समाज किस तरह का बर्ताव करेगा। किस वर्ण के लोग कहां उठेंगे-बैठेंगे, क्या खाएंगे, क्या पहनेंगे-ओढ़ेंगे, किस घाट पर स्नान करेंगे और किस कुएं का पानी पिएंगे। ठीक है, लंबे समय से चली आ रही सामाजिक व्यवस्था है। इसे तोडऩा इतना आसान नहीं है। पर इसे तोडऩे की कोशिशों का भी लंबा इतिहास है। इसपर अंतिम मुहर लगा दी थी देश के संविधान ने। इसे किसने लिखा और उसमें कितने लोग थे, यह महत्वपूर्ण नहीं है। महत्वपूर्ण यह है कि इस लिखित संविधान को हमने अपनाया है। एक बार अपना लिया तो इसका सम्मान करना जरूरी हो जाता है। नीची और ऊंची जाति का यह भेद समय के साथ थोड़ा नर्म पड़ा है पर यह शहरी शिक्षित आबादी तक ही सीमित प्रतीत होता है। देश की बड़ी आबादी अब भी गांवों में रहती है जहां जातिगत आधार पर मोहल्ले अलग-अलग होते हैं। राजनीति में भीड़ जुटानी होती है। चंद समझदार क्या सोचते हैं और क्या कहते हैं, इससे भीड़ को कोई फर्क नहीं पड़ता। इसलिए समझदार अपनी-अपनी ढपली और अपना-अपना राग अलापते रह जाते हैं। पर बात यहीं खत्म नहीं हो जाती। फिल्म निर्देशक अनुराग कश्यप की एक फिल्म है फुले। इस फिल्म के एक संवाद पर एक जाति को आपत्ति हो गई। आपत्ति तक तो ठीक है। फिल्म सेंसर बोर्ड की भी अपनी मजबूरियां हैं। पर आपत्ति जताने के लिए जिस तरह की भाषा का उपयोग किया वह न केवल शर्मनाक है बल्कि समूची भारतीय संस्कृति के लिए घातक भी है। कुछ लोगों का मानना है कि वो समाज के शीर्ष पर हैं। वो जो कहेंगे वही सच होगा। चलो मान लिया कि आप शीर्ष पर हो। पर शीर्ष पर होने की कुछ जिम्मेदारियां भी होती हैं। टीम के जीतने पर जिस तरह कप्तान को इसका श्रेय दिया जाता है, ठीक उसी तरह टीम के हारने का ठीकरा भी उसी पर फोड़ा जाता है। क्या ये लोग इस बात का जवाब देने की स्थिति में हैं कि जब ये समाज के शीर्ष पर ही बैठे थे तो क्यों देश बार-बार गुलाम होता रहा? जब देश में ज्ञान की श्रुत परम्परा थी तो उस ज्ञान का लोप कैसे हो गया? प्रभु श्रीराम ने केंवट को गले लगाया, वानर हनुमान को भाई माना, शबरी के जूठे बेर खाए। जब संदेश ही नहीं लेना तो फिर ढपली क्यों बजाना?

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Manoj Mishra

Editor in Chief

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