-दीपक रंजन दास
क्या ज्यादा जरूरी है – सांस लेना या खनिज का उत्पादन करना? हर कोई यही कहेगा कि सांस लेना. पर खनिज से पैसा आता है। देश के अधिकांश बिजली घर कोयले से ही चलते हैं। बिजली चाहिए तो कोयला निकालना है। ऐसा करने के लिए जंगलों को काटना जरूरी हो जाता है। छत्तीसगढ़ एक ऐसा प्रांत है जहां भूगर्भ में कोयला, लौह अयस्क, चूना पत्थर, डोलोमाइट, बॉक्साइट, टिन, आदि के बड़े भंडार हैं। जहां कहीं भी पहाड़ों या घने जंगलों में खनिज है वहां आदिवासियों का निवास भी है। सरकार खनिज निकालना चाहती है और आदिवासियों को बेघर, बेसहारा हो जाने का डर सताता है। बस्तर के हालात किसी से छिपे नहीं है। लौह अयस्क उत्खनन के चलते एक लंबे समय तक यहां प्रतिरोध चलता रहा। फिर धीरे-धीरे यहां वनग्रामों की आबादी कम होती चली गई। कुछ विस्थापित हो गए तो कुछ की जमीनें बंजर हो गईं। खदानों के खाली होने के बाद शहर भी मर जाते हैं। रोजगार के अवसर सिमट जाते हैं और सरकार उस स्थान को भूल जाती है। दल्ली-राजहरा का उदाहरण हमारे सामने है। एक इलाका हसदेव अभ्यारण्य क्षेत्र का है। जैव विविधताओं से परिपूर्ण इस इलाके में कोयले के भंडार भी हैं। इसे मध्यभारत का फेफड़ा भी कहा जाता है। यहां आदिवासी लंबे समय से पेड़ों की कटाई का विरोध कर रहे हैं। पर उनकी एक नहीं चल रही। पेड़ काटने वाले पुलिस बल के साथ आते हैं और सरकारी संरक्षण में सैकड़ों हेक्टेयर जंगल का सफाया हो जाता है। कुछ ऐसा ही है मामला गुरू घासीदास नेशनल पार्क का। 2012 में तत्कालीन रमन सिंह सरकार ने इसे टाइगर रिजर्व बनाने का निर्णय लिया। इसके प्रस्ताव को नेशनल टाइगर कंजर्वेशन अथॉरिटी ने तत्काल मंजूरी दे दी। इसका कारण यह था कि गुरु घासीदार पार्क से पलामू तक, बांधवगढ़ रिजर्व और संजय-दुबरी बड़ा कॉरिडोर है। 2829।38 वर्ग किमी के इस प्रस्तावित क्षेत्र में हिरण, तेंदुआ समेत अन्य वन्यजीव हैं। घासीदास टाइगर रिजर्व बनने से न केवल टाइगर कॉरिडोर सुरक्षित हो जाएगा बल्कि हाथियों के मूवमेंट के लिहाज से भी यह इलाका अनुकूल हो जाएगा। यह कारीडोर सुरक्षित हो गया तो फिर हाथी भी गांव में आकर उत्पात मचाना कम कर देंगे। यह वही जंगल है जहां भारत का आखिरी चीता देखा गया था। 2014 में जहां राज्य में टाइगरों की संख्या 46 थी वह 2022 में 17 पर आ गई है। एनटीसीए के अप्रुवल के बाद सरकार को केवल नोटीफिकेशन जारी करना था पर यह टल गया। 19 मई 2023 को खनिज विभाग ने वन एवं पर्यावरण विभाग को पत्र लिखकर केंद्रीय कोयला और पेट्रोलियम मंत्रालय की राय लेने की सलाह दे डाली। मामला एक बार फिर लटक गया। 15 जुलाई को छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने सरकार को नोटीफिकेशन के लिए आखिरी बार 4 सप्ताह का समय देते हुए इस मामले में अंतिम फैसला लेने को कहा है। अब दारोमदार नई सरकार पर है।
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