-दीपक रंजन दास
इंसानों के बारे में यह हकीकत तो हम सभी जानते हैं. कोई-कोई 25 साल की उम्र में ही लुंज हो जाता है तो कोई 75 साल की उम्र में भी प्रतिदिन 12 से 16 घंटे तक काम कर लेता है। स्वयं प्रधानमंत्री मोदी इस बात का जीता जागता प्रमाण हैं। काम करने की इच्छा हो और शरीर का रखरखाव अच्छा हो तो उम्र कोई मायने नहीं रखती। यही बात गाडिय़ों पर भी लागू होती है। इसलिए सेकण्ड-हैण्ड गाडिय़ों के बाजार में डाक्टरों की गाडिय़ों की अच्छी कीमत मिल जाती है। ये न केवल कम चली हुई होती हैं बल्कि ये अच्छे से मेन्टेन की गई होती हैं। पर पब्लिक और कमर्शियल ट्रांसपोर्ट के मामले में सरकार ने गाडिय़ों की उम्र तय कर रखी है। एक उम्र के बाद साधारण ट्रक खदानों में चलने लगते हैं जहां उनकी बूढ़ी हड्डियां अपना दम-खम दिखाती हैं। पर टैंकरों के साथ ऐसा नहीं है। तेल ढोने का काम खत्म हुआ तो ये कबाड़ हो जाती है। हद से हद कोई छोटी म्यूनिसिपाल्टी उन्हें पानी ढोने का काम दे सकती हैं। दरअसल, ये गाडिय़ां कबाड़ होती नहीं हैं। सरकार के नियम उन्हें कबाड़ बना देते हैं। तेल कंपनियां 8 साल से ज्यादा पुराने टैंकरों को काम से हटा देती हैं। ताजा आरटीओ घोटाला इसी समस्या के समाधान से जुड़ा है। पुरानी गाडिय़ों में नए चेसिस नम्बर डल जाते हैं और पूर्वोत्तर के राज्यों से इन्हें नया रजिस्ट्रेशन नंबर भी मिल जाता है। इसके बाद एक बार फिर वो तेल ढोने के योग्य हो जाती हैं। सरकार को शायद इस बात का इल्म न हो पर कुछ लोग अपने वाहनों की देखभाल अपने बच्चे की भांति करते हैं। अपने हाथों से उसे नहलाते-धुलाते हैं, तेल-पानी चेक करते हैं। समय पर स्पेयर बदलते हैं और गाड़ी को हमेशा फिट रखते हैं। ड्राइवर और क्लीनर को लेकर भी वो बेहद सतर्क होते हैं। लापरवाह चालकों और हेल्परों को फौरन गाड़ी से उतार देते हैं। वैसे आरटीओ विभाग के पास जिम्मेदारी सिर्फ पंजीयन, नवीकरण और लाइसेंस की ही नहीं होती, गाडिय़ों का फिटनेस चेक करने की भी होती है। पर लगता है कि सरकार को खुद इस विभाग पर ज्यादा भरोसा नहीं है। उसे लगता है कि पैसे खाकर आरटीओ के अफसर कबाड़ गाडिय़ों को भी फिटनेस दे देंगे। इसलिए मजबूरन उसे 8 साल का नियम बनाना पड़ा। अगर यह विभाग अपनी जिम्मेदारी पूरी ईमानदारी से निभाता तो ये नौबत नहीं आती। अब आते हैं इसके अर्थशास्त्रीय पहलू पर। टैंकर की औसत कीमत 40 से 45 लाख रुपए होती है। तेल और मेंटेनेंस के अलावा ट्रांसपोर्टर को यह राशि भी 8 साल में निकालनी होती है। इससे ट्रांसपोर्ट की कीमत बढ़ जाती है जिसका असर तेल की कीमतों पर भी पड़ता है। इसलिए लोग 5-10 लाख में पुरानी गाड़ी खरीदकर उसका नया पंजीयन कराते हैं। अब जाकर मामला खुला है तो हायतौबा मची है।
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