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Gustakhi Maaf: आस्था, मानवता और तर्क का रिश्ता

-दीपक रंजन दास
सृष्टि हमेशा परिवर्तनशील रही है और रहेगी। धरती का नक्शा भी लगातार बदलता रहता है। अलबत्ता इसकी गति इतनी धीमी है कि एक या दो पीढ़ी इसका आभास नहीं किया जा सकता। स्वयं ब्रह्मांड भी चलायमान है और उसमें भी लगातार परिवर्तन होते रहते हैं। पर कुछ धर्म हैं जो एक-एक ग्रंथ को पकड़कर बैठ गए हैं और उसी में खोए रहना चाहते हैं। और यही समस्या की जड़ है। कोई भी ग्रंथ समय सापेक्ष होता है। समय के साथ उसमें बदलाव होने ही चाहिए क्योंकि दुनिया बदल चुकी होती है। परिवेश बदल चुका होता है, लोग और उनकी सोच बदल चुकी होती है। पिछले सौ साल का ही इतिहास देख लें तो पाएंगे कि बहुत से रस्म रिवाज बदल गए हैं और परिवर्तन का यह दौर अभी रुका नहीं है। पर इस्लामी कट्टरपंथी परिवर्तन के खिलाफ हैं। प्रसिद्ध बांग्लादेशी लेखिका तसलीमा नसरीन ने इस मुद्दे को एक बार फिर उठाकर खलबली मचा दी है। अपने तेवरों और लेखनी के कारण बांग्लादेश से निर्वासित तसलीमा ने कहा कि पिछले 1400 सालों में इस्लाम का कोई विकास नहीं हो पाया। वह समय के साथ बदल नहीं पाया। जब तक इस्लाम खुद को विकसित नहीं करेगा, तब तक वह आतंकवादियों को जन्म देता रहेगा। पहलगाम आतंकी हमले और ढाका में 2016 के आतंकी हमले के बीच समानताएं बताते हुए उन्होंने कहा कि यहां हिन्दू पूछकर मारा तो ढाका में जो लोग कलमा नहीं पढ़ पाए, उनका कत्ल कर दिया गया। जब-जब आस्था को तर्क और मानवता पर हावी होने दिया जाता है, तब-तब यही होता है। तसलीमा कहती हैं कि यूरोप में चर्च संग्रहालयों में बदल गए, लेकिन मुसलमान हर जगह मस्जिद बनाने में व्यस्त हैं। हजारों मस्जिदें हैं और वे और भी मस्जिदें बनाना चाहते हैं। वे जिहादी पैदा करते हैं। मुसलिम परिवारों के बच्चों की शिक्षा को लेकर वे कहती हैं कि मदरसे नहीं होने चाहिए। सभी बच्चों को औपचारिक शिक्षा प्राप्त करनी चाहिए। सिर्फ धार्मिक किताब से काम नहीं चलेगा। फिलहाल तो भारत में हिन्दू और मुसलमान दोनों ही इस होड़ में शामिल दिखाई देते हैं। कोई मंदिर बनवाने में लगा है तो कोई मस्जिद बनवाने में। विश्व के चोटी के शैक्षणिक संस्थानों में एक भी भारतीय संस्थान नहीं है। अब कहीं विकास की बातें नहीं होतीं-केवल आस्था की बातें होती हैं। लोग पीछे की ओर लौटना चाहते हैं। यह भी एक तरह का पलायनवाद है। जब राजनीति को बढ़ती आबादी और उसकी समस्याओं का हल नहीं सूझा तो उसने पुराने रिकार्ड बजाने शुरू कर दिये। आस्था का यह पागलपन अब सिर चढ़कर बोल रहा है। अब वो नहीं पूछता की नौकरियां कब मिलेंगी? हर ठेके के पीछे एक ही चेहरा क्यों है? हाहाकारी महंगाई से कब बेचारी जनता का पीछा छूटेगा? वह तो खुश है कि देश सनातन की ओर लौट रहा है। एक बार फिर यहां राजा होंगे, राजा के जमींदार और उनके लठैत होंगे।

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Manoj Mishra

Editor in Chief

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