-दीपक रंजन दास
केरल भी छत्तीसगढ़ जैसा ही एक छोटा सा प्रांत है जहां की कुल आबादी लगभग साढ़े तीन करोड़ की है। राज्य के 11 लाख घरों में ताले लगे हुए हैं। लगभग 21 लाख घरों में सिर्फ बुजुर्ग रहते हैं। नहीं, यहां कोई आतंकी हमला नहीं हुआ है। यहां कोई महामारी भी नहीं आई है। हुआ सिर्फ इतना है कि रोजगार की तलाश में युवाओं ने गांव छोड़ दिया है। केरल के पांच में से एक परिवार का कोई न कोई सदस्य बहरीन, कुवैत, दुबई या अमेरिका में है। शेष बच्चे भी देश के अन्य महानगरों में सेटल हो चुके हैं जो साल-दो साल में एक बार घर आते हैं। मीडिया रिपोट्र्स की मानें तो केरल के दो गांव तो सिर्फ बुजुर्गों के हैं। यहां युवा तो दूर कोई अधेड़ भी नजर नहीं आता। केरल में बूढ़ों के लिए दो योजनाएं चलती हैं – वयोमित्रम् और स्वयंप्रभा। ये संस्थाएं डे-केयर, मेडिकल और नर्सिंग सेवाएं घर पर उपलब्ध कराती हैं। बुजुर्ग प्रतिदिन कम से कम एक अन्य बुजुर्ग से मिलकर एक दूसरे का हाल-चाल पूछते हैं। जो हालत आज केरल की है, कल पूरे भारत का हो सकता है। देश में बुजुर्गों की संख्या तेजी से बढ़ रही है। अकेले भिलाई की बात करें तो यहां गरीब और बेसहारा बुजुर्गों के लिए कई संस्थाएं खुल चुकी हैं जिनके आश्रितों की संख्या लगातार बढ़ रही है। आस्था बहुउद्देश्यीय संस्था की दो शाखाएं, फील परमार्थम, मदर टेरेसा वृद्धाश्रम, रामशिला की कुटिया और पुलगांव का वृद्धाश्रम इनमें उल्लेखनीय है। इन बुजुर्गों की सेवा चंदे की राशि से होती है। यहां बुजुर्ग एक दूसरे का सहारा भी बनते हैं और लड़-झगड़ कर अपना मनोरंजन भी करते हैं। वृद्धों की देखभाल के लिए केन्द्र सरकार ने सब्सिडी स्कीम चलाई थी। राज्य सरकारें भी मदद करती थीं। पर केन्द्र ने योजना बंद कर दी तो राज्यों ने भी हाथ खींच लिये। केरल-गुजरात और शेष भारत में एक बड़ा फर्क है। इन दोनों राज्यों में पैसों की कमी नहीं है। अधिकांश परिवारों के बच्चे अच्छा कमाते हैं और पैसे घर भेजते हैं। यहां समस्या केवल देखभाल की है। अन्य राज्यों की स्थिति ऐसी नहीं है। परिवार की आमदनी ही इतनी कम है कि बुजुर्गों की देखभाल नहीं हो पाती है। ऐसे में याद आती है भारत के गांव और ग्रामीण संस्कृति की। भारतीय परम्परा संयुक्त परिवारों की रही है। सनातन बुजुर्गों की जोड़ी छोटे बच्चों के साथ बनाती है। अर्थात दादा-दादी या नाना-नानी ही नाती-पोतों के सच्चे मित्र की भूमिका में होते हैं। दोनों के पास वक्त ही वक्त होता है। बुजुर्ग बच्चों के साथ रहकर बचपन में लौट जाते हैं तो बच्चे बुजुर्गों के साथ रहकर उनसे जुड़ पाते हैं। पर अब यह सम्पर्क टूट कर खो गया है। इसके चलते समाज का बुनियादी ढांचा ही चरमरा गया है। संवेदनशीलता, सहिष्णुता, रिश्तों की समझ जैसी चीजें फीकी पड़ गई हैं। संयुक्त परिवारों का विकल्प ढूंढना अभी शेष है।

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