-दीपक रंजन दास
वयस्क और नाबालिग की कानूनी परिभाषा बेहद आसान है। इसके लिए एक उम्र तय कर दी गई है। 17 साल 11 महीने और 29 दिन का बच्चा सोच समझकर निर्णय नहीं कर सकता। 18 साल का होते ही उसकी समझ की बत्ती जल जाती है। अब वह अपने सारे फैसले खुद ले सकता है। उम्र को लेकर खींची गई ये लकीरें अनेक क्षेत्रों में बाधा की सृष्टि करती है। स्कूलों में दाखिले की न्यूनतम उम्र 6 वर्ष है। पर 2 साल के बच्चे के लिए भी स्कूल होते हैं। इनकी फीस कालेजों से भी ज्यादा होती है। बहुत कम उम्र में कुछ बच्चे बड़ी-बड़ी परीक्षाएं पास कर लेते हैं। ऐसे मामलों से जाहिर होता है कि – ‘एज इज जस्ट ए नम्बर’। उम्र को लेकर लकीरें नहीं खींची जानी चाहिए। नाबालिगों के लिए तो कानून भी बेहद लचीला है। उसे वयस्कों के साथ कारागार में बंद नहीं किया जा सकता। उसे बाल संप्रेक्षण गृह में रखना होता है। नाबालिगों को मिले इस विशेष दर्जे का लाभ शातिर भी खूब उठाते हैं। रायपुर में भी ऐन ऐसा ही हुआ। एक युवक आरोपियों को परेशान करता था। उनके पैसे छीन लेता था। होली के दिन उसके मर्डर का प्लान बना। बड़े ने छोटे से कहा – ‘तू मर्डर कर, मैं जमानत ले लूंगा।’ छोटा नाबालिग जो ठहरा। बच्चा इतना खूंख्वार होगा, यह शायद उसने भी नहीं सोचा था। बच्चे ने युवक को इतने चाकू मारे कि गिनते-गिनते पुलिस थक गई। ऐसी ही दरिन्दगी उस बच्चे ने भी दिखाई थी जिसके कारण कानून में फेरबदल करना पड़ा। वह मामला था दिल्ली की सड़कों पर चलती बस में एक युवती से सामूहिक बलात्कार का। उस घटना में युवती के प्राइवेट पार्ट में लोहे का सरिया घुसेड़ दिया गया था। बहुत कोशिशों के बाद भी युवती को बचाया नहीं जा सका था। बहुत पहले लोग चोरी-चकारी के लिए छोटे बच्चों का उपयोग करते थे। बच्चों को छोटी खिड़कियों से घर में घुसा दिया जाता था। वे भीतर जाकर दरवाजा खोल देते और चोर अपना काम कर जाते। आज भी कुछ अपराधी समूह के लोग बच्चों के सहारे तरह-तरह के अपराधों को अंजाम देते हैं। एक कसाब भी आया था भारत में। वह भी नाबालिग था। इससे उसके अपराध की भयानकता कुछ कम नहीं हो गई थी। समय-समय पर ऐसा अपराधियों को लेकर जन-आक्रोश उभरता रहा है। लोग अपराधी को भीड़ के सुपुर्द करने की मांग करते रहे हैं। पुलिस ऐसा तो नहीं कर सकती पर जो अपराधी बार-बार कानून के छिद्रों का फायदा उठाकर बच निकलते हैं, उन्हें वह भगाकर गोली मारती रही है। देश में ऐसे एनकाउंटर स्पेशलिस्टों की एक पूरी लिस्ट है। इन एनकाउन्टर विशेषज्ञों के खौफ से दुर्दांत अपराधी भी बिलों में दुबक जाते हैं। यह सरकार का काम है कि वह कानून में ऐसे प्रावधान करे कि पुलिस न तो मूकदर्शक बनकर खड़ी रहे और न ही एनकाउन्टर करने के लिए मजबूर हो।
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