बिलासपुर की भीड़भाड़ वाली सड़कों पर अक्सर एक गुलाबी बादल-सी मिठास हवा में तैरती दिखाई देती है, पिंक कॉटन कैंडी. इसी मिठास के पीछे छिपी है 14 साल के पियूष की संघर्ष और जिम्मेदारी से भरी कहानी. पिता की तबीयत खराब होने के बाद पियूष ने छोटी उम्र में ही बड़ी जिम्मेदारी उठाते हुए खुद काम करने का फैसला लिया. हाथों में लकड़ी की छड़ी पर घुमती कॉटन कैंडी और चेहरे पर मासूम मुस्कान लिए वह रोज सुबह निकल पड़ता है बिलासपुर की गलियों में, ताकि घर का खर्च चल सके. कठिन परिस्थितियों के बावजूद, वह न सिर्फ मजबूती से खड़ा है, बल्कि उम्मीद का एक नया रास्ता भी बना रहा है.
पिता की बीमारी बनी संघर्ष की शुरुआत
पियूष ने बताया कि उसके पिता की तबीयत लंबे समय से खराब है, जिसके बाद उसने पढ़ाई के साथ-साथ घर के लिए कुछ करने का फैसला लिया. परिवार की आर्थिक स्थिति कमजोर होने के कारण उसने कॉटन कैंडी बेचने का काम शुरू किया ताकि घर में मदद पहुंचाई जा सके.
पियूष रोजाना घर से करीब 50 पिंक कॉटन कैंडी बनाकर निकलता है और पूरे दिन बिलासपुर की सड़कों व बाजारों में घूमकर बेचता है. कई बार लोगों से काफी रिक्वेस्ट करनी पड़ती है, तब जाकर बच्चे या परिवार वाले कैंडी खरीदते हैं. इसके बावजूद वह दिनभर की मेहनत से करीब 1000 रुपए तक की बिक्री कर लेता है.
कॉटन कैंडी बनाना आसान, कम खर्च में अच्छी कमाई
पियूष बताता है कि पिंक कॉटन कैंडी बनाने का खर्च बहुत कम है, इसलिए उसे अच्छी कमाई हो जाती है. उसके पिता घर पर ही कैंडी बनाने में मदद करते हैं और पियूष तैयार होने के बाद शहर में घूम-घूमकर उसे बेचता है. वह रात 9 बजे तक घर लौट आता है.
भारत में कब शुरू हुई ‘पिंक कॉटन कैंडी’? रोचक है इसका इतिहास
कॉटन कैंडी, जिसे भारत में ‘बुढ़िया के बाल’, ‘गुलाब लच्छी’ या ‘पिंक कॉटन कैंडी’ कहा जाता है, 20वीं सदी की शुरुआत में भारत आई. इसे सबसे पहले 1904 में अमेरिका में बनाया गया था, जब दो मिठाई निर्माताओं ने चीनी के पतले तंतुओं से धुंध जैसी मिठाई बनाई और यह फेयर ग्राउंड्स पर बेहद लोकप्रिय हो गई. भारत में यह मिठाई मेलों, गाँवों और सड़कों पर लगभग 1940–50 के दशक में दिखाई देने लगी. सस्ती, आकर्षक और बच्चों की पसंदीदा होने के कारण यह तेजी से पूरे देश में फैल गई. पिंक रंग और मीठी खुशबू इसे खास बनाते हैं, और इसे बनाने की मशीन आज भी बेहद सरल और कम लागत वाली होती है.
बच्चे की हिम्मत बनी मिसाल
कई चुनौतियों के बावजूद पियूष ने अपने हालातों से हार नहीं मानी. छोटी उम्र में जिम्मेदारी उठाकर वह न सिर्फ अपने परिवार का सहारा बना है, बल्कि समाज के लिए एक प्रेरणा भी. उसकी कहानी बताती है कि मेहनत, हिम्मत और उम्मीद के साथ कोई भी मुश्किल आसान हो सकती है.





